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484/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
प्रथम खंड 'लक्षण' नाम का है, द्वितीय खण्ड 'विधि' नाम का है और तृतीय खंड 'साधन' नाम का है।
इसका प्रथम खंड १७ परिच्छेदों में विभक्त है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ के सत्रह पद्य मंगलाचरण, ग्रन्थप्रयोजन, ग्रन्थस्वरूप आदि से सम्बन्धित है। सर्वप्रथम भगवान महावीर को वन्दन करके और विधि परंपरा को समझकर कल्याणकलिका नामक प्रतिष्ठापद्धति कहने की प्रतिज्ञा की गई है। आगे इस ग्रन्थ रचना का प्रयोजन बताते हुए कहा गया है कि अनेक प्रकार की प्रतिष्ठा विधियाँ देखी जाती है परन्तु वे सभी पद्धतियाँ समतुल्य नहीं है। कितनी ही संक्षिप्त हैं तो कितनी अति विस्तृत है। जबकि यह प्रतिष्ठापद्धति मध्यम आकार को ध्यान में रखकर लिखी जा रही है। इस सम्बन्ध में ग्रन्थकार ने यह भी निर्दिष्ट किया है कि श्री चन्द्रसूरिकृत 'प्रतिष्ठाविधि' एवं विधिमार्गप्रपा ग्रन्थ की सामाचारी में वर्णित 'प्रतिष्ठापद्धति' अत्यन्त लघु है। श्री गुणरत्नसूरि कथित प्रतिष्ठापद्धति और श्री विशालराजशिष्य प्रणीत प्रतिष्ठापद्धति आजकल व्यवहार में प्रचलित नहीं है। श्री सकलचन्द्रगणि रचित प्रतिष्ठाकल्प अवश्य ही विस्तार के साथ उपलब्ध होता है परन्तु इस प्रतिष्ठाकल्प में भी कितने ही विधि-विधान एक-दूसरे में प्रविष्ट होकर सम्बन्ध विहीन हो गये हैं। अतः प्राचीन परम्परा के ज्ञानपूर्वक कल्याणविजयजी गणि ने 'नव्यप्रतिष्ठा पद्धति' का निर्माण किया है।
अब-इस प्रथम विभाग में वर्णित विधि-विधानों एवं तत्संबंधी विषयों का नामनिर्देश परिच्छेदों के आधार पर इस प्रकार प्रस्तुत है - प्रथम परिच्छेद का नाम 'भूमि लक्षण' है। इसमें भूमि शुभ है या अशुभ ? यह जानने की विधि कही गई है। दूसरे परिच्छेद का नाम 'शल्योद्धार लक्षण' है। इस परिच्छेद में भूमिगत शल्य का ज्ञान कैसे हो सकता है? भूमिगत शल्य का क्या फल है? एवं शल्य का उद्धार करने के लिए भूमि को कितना खोदना चाहिए? इत्यादि विषय चर्चित हुए हैं। तीसरा परिच्छेद 'दिक्साधन लक्षण' नाम का है। इसमें कहा है कि प्रासाद, मठ, मन्दिर, घर, सभागृह और कुण्ड आदि के निर्माण में पूर्वादि दिशाओं की शुद्धि अवश्य देखनी चाहिये। इस सम्बन्ध में दिशाज्ञान के उपाय, दिशाज्ञान के प्रकार, दिशासाधन का वर्णन किया है। चौथे परिच्छेद का नाम 'कीलिकासूत्र लक्षण' है। इसका मुख्य विषय है - चैत्य आदि के हेतु प्रारंभ में गृहीत भूमि पर किस वर्णवाली कीलिका लगानी चाहिए तथा वह कितनी मोटी और चारों कोनों में कितनी लम्बी होनी चाहिए ? इत्यादि। पांचवाँ परिच्छेद 'कूर्मशिला लक्षण' नामक है। इस परिच्छेद में कूर्मशिला का मान,
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