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106/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
आचार को स्वीकार करके अनाचार से बचता है। पंचाचार रूप धर्म आचार है और जितने भी अग्राह्य, अभोग्य एवं अकरणीय कार्य हैं वे अनाचार हैं। इसमें ५२ प्रकार के अनाचार (अनाचीर्ण) कहे गये हैं। ४. धर्मप्रज्ञप्ति-षड्जीवनिकाय - इस चतुर्थ अध्ययन में जीवसंयम और आत्मसंयम पर चिन्तन किया गया है। इसमें उल्लेख हैं कि वही साधक श्रमणधर्म की विधि का पालन कर सकता है जो जीव और अजीव के स्वरूप को जानता हो। इसके साथ ही पाँचमहाव्रत और छट्ठा रात्रिभोजनविरमणव्रत का स्वरूप बतलाया गया है। आगे कहा है कि महाव्रतों का सम्यक् पालन वही कर सकता है जिसे पहले जीव-अजीव के स्वरूप का ज्ञान हो। इस ज्ञान के अभाव में अहिंसा का पालन नहीं हो सकता है और बिना अहिंसा (दया) के अन्य व्रतों का पालन नहीं हो सकता है। साध्वाचार की दृष्टि से यह अध्ययन अत्यन्त प्रेरणादायी सामग्री प्रस्तुत करता है। ५. पिण्डैषणा - यह अध्ययन दो उद्देशकों में विभक्त है। प्रथम उद्देशक में भिक्षा के सम्बन्ध में गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा का वर्णन है इसलिए इस अध्ययन का नाम पिण्डैषणा है। इस अध्ययन में भिक्षाचर्या से सम्बन्धित जो कुछ विधियाँ प्राप्त होती हैं वे निम्न हैं -
१. गोचरी गमन विधि, २. गृह प्रवेश सम्बन्धी विधि-निषेध, ३. आहार ग्रहण सम्बन्धी विधि-निषेध, ४. गर्भवती एवं स्तनपायिन नारी से भोजन लेने सम्बन्धी विधि निषेध, ५. भोजन करने की आपवादिक विधि, ६. साधु-साध्वियों के आहार करने की सामान्य विधि, ७. पर्याप्त आहार न मिलने पर पुनः आहार-गवेषणा की विधि ८. यथाकालचर्या करने का विधान, ६. सामुदायिक भिक्षा का विधान आदि।
___ पाँचवे अध्ययन के दूसरे उद्देशक में साधु के भिक्षाचर्या की काल सम्बन्धी विधि बतायी गयी है अर्थात् इसमें यह बताया गया है कि साधु को भिक्षा के लिए किस समय जाना चाहिये। ६. महाचारकथा - इस अध्ययन में सूक्ष्म रूप से साधु की आहारविधि ही प्रतिपादित है। तृतीय अध्ययन में क्षुल्लक आचार का विवेचन है तो इस अध्ययन में महाचार का विवेचन है। तृतीय अध्ययन में केवल सामान्य आचार का ही निरूपण है, जबकि इस अध्ययन में उत्सर्ग और अपवाद दोनों मागों का निरूपण है। यहाँ दोनों ही मार्ग साधक की साधना को लक्ष्य में रखकर बताए गए हैं। जैसे एक नगर तक पहुँचने के दो मार्ग हैं, वे दोनों ही मार्ग कहलाते हैं, अमार्ग नहीं; वैसे ही उत्सर्ग भी साधना का मार्ग है और अपवाद भी। उदाहरण के रूप में
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