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________________ और आहारविधि से सम्बन्धित है। यह सूत्र अस्वाध्याय के समय को छोड़कर सभी कालों में पढ़ा जा सकता है। यह सूत्र प्राकृत भाषा में है। इसमें कुल ४८० गाथाएँ है, ३६ सूत्र है, १० अध्ययन हैं, ६ उद्देशक है और कुल ३४ गाथा की दो चूलिकाएँ हैं। इसके कर्त्ता श्रुतकेवली शय्यंभवसूरि हैं। उन्होंने इसकी रचना अपने पुत्र मनक के लिये की थी। इसका रचनाकाल वीर - निर्वाण संवत् ७२ के आस-पास है। यह रचना चम्पा में हुई है क्योंकि मनक अपने पिता शय्यंभवसूरि से चम्पा में मिला था। दशवैकालिकसूत्र के सम्बन्ध में कहा जाता है कि यह एक निर्यूहण - रचना है, प्रत्युत स्वतन्त्र कृति नहीं है । दशवैकालिक नियुक्ति' के अनुसार दशवैकालिक का चौथा अध्ययन आत्मप्रवादपूर्व से, पाँचवां अध्ययन कर्मप्रवादपूर्व में से, सातवाँ अध्ययन सत्यप्रवादपूर्व में से, और शेष अध्ययन नौंवें प्रत्याख्यानपूर्व की तीसरी वस्तु में से लिए गये हैं। दशवैकालिक के कतिपय अध्ययन और गाथाओं की उत्तराध्ययन और आचारांगसूत्र के अध्ययन और गाथाओं के साथ तुलना की जा सकती है। वस्तुतः आगम श्रमण जीवन की आचारसंहिता से सम्बन्धित है। इसमें श्रमणाचार की जितनी भी प्रमुख बातें हैं, वे सभी आ गई हैं। जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 105 अब हमारा जो वर्ण्य विषय है उसकी अपेक्षा से दशवैकालिकसूत्र के १० अध्ययनों का विवेचन इस प्रकार हैं : 1 - १. द्रुमपुष्पिका इसमें धर्म की व्याख्या और प्रशंसा की गई है। इसके साथ ही साधु की भिक्षा कैसी होनी चाहिए और साधु को किस प्रकार आहार ग्रहण करना चाहिये इस बात को माधुकरी वृत्ति के आधार पर समझाया गया है। यहाँ यह ध्यातव्य हैं कि जैन श्रमण की भिक्षा सामान्य भिक्षुओं की भाँति नहीं होती। उसके लिए अनेक नियम और उपनियम हैं। वह किसी को भी बिना पीड़ा पहुँचाये शुद्ध- सात्विक नवकोटि परिशुद्ध भिक्षा ग्रहण करता है । भिक्षाविधि में भी अहिंसा की सूक्ष्म मर्यादा का पूर्ण ध्यान रखा गया है। २. श्रामण्यपूर्वक - यह दूसरा अध्ययन है। इसमें निर्देश हैं कि संयम में धृति रखने वाला ही साधक अपनी साधना को आगे बढ़ाता है। धर्म बिना धृति के स्थिर नहीं रह सकता है। ३. क्षुल्लकाचारकथा इस तृतीय अध्ययन में आचारविधि और अनाचार विधि का विवेचन किया गया है । सम्पूर्ण ज्ञान का सार आचार है। जिस साधक में धृति होती है वही साधक आचार और अनाचार के भेद को समझ सकता है और दशवैकालिक निर्युक्ति, गा. १६-१७ Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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