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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास /591
इस द्वार में यह भी उल्लिखित है कि दीक्षा - प्रतिष्ठादि में जन्ममास का नक्षत्र त्याग करना चाहिए। दीक्षादि में कौन से दिन त्याज्य होते हैं? प्रतिष्ठादि के लिए कौन से नक्षत्र ग्राह्य होते हैं ? सभी कार्यों में कौन से लग्न त्याज्य हैं ? दीक्षा लग्न में कौनसे ग्रह शुभ होते हैं ? नृपाभिषेक के समय नक्षत्र और ग्रहव्यवस्था कैसी होनी चाहिये ? इत्यादि ।
इस ग्रन्थ का समग्र अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि यह जैन ज्योतिष का अक्षय भण्डार रूप है। इसमें शुभ-अशुभ योग कैसे बनते है ? कौनसा नक्षत्र किसका संज्ञावाचक है ? ग्रहगोचर की शुभाशुभ स्थिति कैसी होती है ? बारह भावों का विचार किस प्रकार करना चाहिए इत्यादि कई प्रकार की विधियों से विषय को स्पष्ट किया गया है। इस कृति की टीका अवश्य ही पठनीय है। यह टीका वि.सं. १५१४ में, शुक्लादूज के साथ गुरुवार के दिन आशापल्लि नगर में रची गई थी। इस ग्रन्थ में कई प्रकार के कोष्ठक भी दिये गये हैं जो दुरूह विषय को सुस्पष्ट करते हैं। इसमें ग्यारह द्वारों को पाँच विमर्श में विभक्त किया है।
विशेष - हमें आरंभसिद्धि' नामक एक कृति और देखने को मिली है। यह कृति हरिभद्रसूरि रचित 'लग्नशुद्धिप्रकरण' और रत्नशेखरसूरि विरचित 'दिनशुद्धिप्रकरण' के साथ है। इसमें आरंभसिद्धि ग्रन्थ को पाँच विमर्शो एवं ग्यारह द्वारों में विभक्त किया गया है। इस कृति का रचनाकाल १३ वीं शती माना है। इसमें मूल ग्रन्थ का गुजराती भाषान्तर दिया गया है। उक्त दोनों प्रकरण प्राकृत पद्य में हैं। लग्नशुद्धि प्रकरण १३३ गाथाओं में निबद्ध है और दिनशुद्धि प्रकरण १४४ गाथाओं में गुम्फित है।
लग्नशुद्धि नामक प्रकरण में सामान्यतः गोचरशुद्धि, दिनशुद्धि और लग्नशुद्धि इन तीनों द्वारों पर विचार किया गया है। गोचरशुद्धि नामक प्रथम द्वार में लग्न शब्द का अर्थ और चंद्र, गुरु, रवि एवं ताराओं की शुद्धि आदि पर विशेष प्रकाश डाला गया है । दिनशुद्धि नामक दूसरे द्वार में मास, वार, तिथि, नक्षत्र, योग, करण आदि दस द्वारों के नाम कहे गये हैं तथा इन मास, वार आदि की शुद्धि का वर्णन किया गया है। लतादोष, पातदोष, एकार्गलदोष, सन्ध्यागत आदि वर्ज्य नक्षत्र का भी उल्लेख हुआ है। लग्नशुद्धि नामक तीसरे द्वार में लग्नशुद्धि के प्रकार, लग्न के स्थान, उदयास्त शुद्धि, ग्रहों की दृष्टि, दीक्षा-प्रतिष्ठा-सूरिपद-राज्याभिषेक - विवाहादि से सम्बन्धित शुभाशुभ ग्रहों का कथन, सौम्य तथा क्रूरग्रह, शुभशकुन इत्यादि का प्रतिपादन हुआ है।
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यह ग्रन्थ 'सरस्वती पुस्तक भंडार, रतनपोल, हाथीखाना, अहमदाबाद' से वि.सं. २०४५ में प्रकाशित हुआ है।
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