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________________ 108/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य प्रथमचूलिका- इसका नाम 'रतिवाक्या' है। इसमें संयम-साधना से विचलित होने वाले साधकों को पुनः स्थिर करने की विधि बतायी गई है। द्वितीयचूलिका- का नाम 'विविक्तचर्या' है। इसमें श्रमण की एकान्तचर्या के गुण और नियमों का निरूपण है। निष्कर्षतः दशवैकालिकसूत्र' में श्रमणाचार सम्बन्धी विधि-विधान का बहुत ही व्यवस्थित ढंग से हुआ है। दशवैकालिकनियुक्ति यह आगम आचारविधान और आहारविधान से सम्बद्ध होने के कारण इस ग्रन्थ पर जो कुछ भी व्याख्या साहित्य प्रतीत होता है उन पर संक्षिप्त प्रकाश डालना अनिवार्य प्रतीत होता है चूंकि व्याख्यापरक ग्रन्थों में उक्त विषय की कुछ विस्तृत चर्चा प्राप्त होती है। दशवैकालिकनियुक्ति प्राकृत पद्य में निबद्ध है इसके नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाह माने जाते हैं। किन्तु इस सम्बन्ध में अनेक मतभेद भी हैं। नियुक्ति के प्रारम्भ में सर्वसिद्धों को मंगलरूप नमस्कार करके मंगल के विषय में कहा है कि ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में विधिपूर्वक मंगल करना चाहिए। नामादि की अपेक्षा मंगल चार प्रकार का बताया गया है। ___ आगे उल्लेख हैं कि 'दश' शब्द का प्रयोग दस अध्ययन की दृष्टि से हुआ है और 'काल' का प्रयोग इसलिए हुआ है कि इसकी रचना उस समय पूर्ण हुई जब पौरुषी व्यतीत हो चुकी थी, अपराह्म का समय हो चुका था। आगे दस अवयवों से प्रथम अध्ययन का परीक्षण किया गया हैं दूसरे अध्ययन में नामादि चार प्रकार से 'श्रामण्य' की निक्षेप पद्धति से व्याख्या की गई है। आगे के सभी अध्ययनों में भी उस-उस विषय का निक्षेप पद्धति से व्याख्यान किया गया है। यहाँ यह ध्यातव्य हैं कि नियुक्ति की व्याख्या शैली निक्षेप पद्धति पर आधारित होती है। जिनमें मूल ग्रन्थ के प्रत्येक पद की व्याख्या न करके मुख्य ' दशवैकालिक रचना से पूर्व आचारांग का अध्ययन अध्यापन होता था, परन्तु दशवैकालिक की रचना के बाद आचारबोध के लिए सर्वप्रथम दशवैकालिक का अध्ययन आवश्यक माना गया। दशवकालिक निर्माण के पूर्व आचारांग के 'शस्त्रपरिज्ञा' अध्ययन से श्रमणों में महाव्रतों की उपस्थापना की जाती थी, किन्तु दशवैकालिक के निर्माण के बाद दशवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन से महाव्रतों की उपास्थापना की जाने लगी। प्राचीन काल में श्रमणों को भिक्षाग्राही बनने के लिए आचारांगसूत्र के दूसरे अध्ययन के 'लोकविचय' के पांचवे उद्देशक को जानना आवश्यक था, पर जब दशवैकालिक का निर्माण हो गया तब उस सूत्र के पाँचवाँ अध्ययन 'पिण्डैषणा' को जानने वाला श्रमण भी भिक्षाग्राही हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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