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________________ 8/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास १० गृहस्थ जीवन की प्रधानता १० संन्यास जीवन की प्रधानता। ११ सामाजिक जीवन शैली | ११ एकाकी जीवन शैली। १२ राजतन्त्र का समर्थन । १२ जनतन्त्र का समर्थन। १३ शक्तिशाली की पूजा १३ सदाचारी की पूजा। १४ विधि-विधानों एवं कर्मकाण्डों की १४ ध्यान और तप की प्रधानता। प्रधानता १५ पुरोहित-वर्ग का विकास १५ श्रमण-संस्था का विकास १६ उपासनामूलक १६ समाधिमूलक। उपर्युक्त सारिणी के माध्यम से इतना अवश्य सिद्ध हो जाता है कि वैदिक धर्म मूलतः प्रवृत्तिप्रधान और श्रमणधर्म निवृत्ति प्रधान रहा है। ___ जब उक्त दोनों धाराओं की अर्वाचीन स्थिति पर दृष्टिपात करते हैं तो लगता है वैदिक धारा से विकसित हिन्दू धर्म में भले ही यज्ञ-त्याग और कर्मकाण्ड की प्रधानता रही हो, तथापि उसमें संन्यास, मोक्ष और वैराग्य का अभाव नहीं है। चाहे अध्यात्म, संन्यास और वैराग्य के ये तत्त्व उन्होंने श्रमण परम्परा से ही क्यों न ग्रहण किये हो। आज हिन्दू धर्म में संन्यास, वैराग्य, तप-त्याग, ध्यान और मोक्ष की जो अवधारणाएँ विकसित हुई हैं, वे सभी इस बात को प्रमाणित करती हैं कि वर्तमान में हिन्दू धर्म ने श्रमणधारा से बहुत कुछ ग्रहण किया है। इसी प्रकार कालान्तर में श्रमणधारा ने भी चाहे-अनचाहे वैदिक धारा से बहुत कुछ ग्रहण किया है। मूलतः श्रमण धर्म भले ही निवृत्ति प्रधान और कर्मकाण्ड रहित हो, परन्तु वर्तमान में कर्मकाण्ड (विधि-विधान) और पूजा पद्धति का जो विकसित रूप देखने को मिलता है वह लगभग हिन्दु परम्परा से आया हुआ ही प्रतीत होता है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जहाँ एक ओर भारतीय श्रमण परम्परा ने वैदिक परम्परा को आध्यात्मिक जीवन दृष्टि के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष की अवधारणाएँ प्रदान की, वहीं दूसरी ओर तीसरी-चौथी शती से वैदिक परम्परा के प्रभाव से पूजा-विधान और तान्त्रिक साधनाएँ जैन-धर्म और बौद्ध-धर्म में प्रविष्टि हो गईं। अनेक हिन्दु देव-देवियाँ भी प्रकारान्तर से जैन धर्म में स्वीकार कर ली गई। इतना ही नहीं वैदिक परम्परा के प्रभाव से जैन मन्दिरों में भी अब यज्ञ होने लगे हैं और पूजा-विधान में हिन्दू- देवताओं की तरह तीर्थंकरों का भी आहान एवं विसर्जन किया जाने लगा है। अधिक तो क्या कहें, हिन्दूओं की पूजा-विधि में जो मन्त्र उच्चरित होते हैं उन मन्त्रों में कुछ शाब्दिक परिवर्तनों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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