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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/7 अलौकिक शक्तियों की उपासना आत्मोपलब्धि समर्पण मूलक भक्ति मार्ग यज्ञ मूलक कर्म मार्ग चिंतन प्रधान ज्ञान मार्ग देहदण्डन मूलक तप मार्ग उक्त सारिणी के अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि प्रवर्तक एवं निवर्त्तक दोनों धाराओं का विकास भिन्न-भिन्न दृष्टियों से हुआ है। गहराई के साथ सोचा जाये तो दोनों धाराओं के मतभेद का मूल आधार कर्मकाण्ड ही रहा है। पुनः दोनों परम्पराओं की पारस्परिक भिन्नता को अधिक स्पष्टता के साथ समझने के लिए यहाँ द्वितीय सारणी अधिक उपयोगी प्रतीत होती हैं वह निम्न है' नता - m प्रवर्तक धर्म निवर्त्तक धर्म १ जैविक मूल्यों की प्रधानता १ आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता। २ विधायक जीवन-दृष्टि २ निषेधक जीवन-दृष्टि। ३ समष्टिवादी व्यष्टिवादी। व्यवहार में कर्म पर बल फिर भी ४ व्यवहार में नैष्कर्मण्यता का दैविक शक्तियों की कृपा पर समर्थन फिर भी आत्मकल्याण हेतु विश्वास वैयक्तिक पुरुषार्थ पर बल। ईश्वरवादी ५ अनीश्वरवादी। ६ ईश्वरीय कृपा पर विश्वास ६ वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास, कर्म सिद्धान्त का समर्थन। ७ साधना के बाह्य साधनों पर बल ७ आन्तरिक विशुद्धता पर बल। र जीवन का लक्ष्य स्वर्ग या ईश्वर ८ जीवन का लक्ष्य मोक्ष एवं निर्वाण के सान्निध्य की प्राप्ति की प्राप्ति। ६ वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद का ६ जातिवाद का विरोध, वर्ण-व्यवस्था जन्मना आधार पर समर्थन का केवल कर्मणा आधार पर समर्थन। 'जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा - ले. डॉ. सागरमल जैन, पृ. ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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