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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/447
होती है। साथ ही जिनप्रतिमा एवं जिनपूजा की प्राचीनता को भी सिद्ध करती है। प्रस्तुत रचना में एकविध, द्विविध, त्रिविध, चतुर्विध, पंचोपचारी, अष्टोपचारी, सर्वोपचारी, चौदह प्रकारी, सत्रहप्रकारी, इक्कीसप्रकारी आदि अनेकविध पूजाओं का उल्लेख किया गया है इसके आधार पर पूजापद्धति में आये परिवर्तनों को कालक्रम की दृष्टि से सहजतया देखा जा सकता है।
यहाँ ध्यातव्य है कि प्रस्तुत कृति में जहाँ सर्वोपचारी पूजाओं का उल्लेख हुआ है वे स्नान-विलेपन युक्त जाननी चाहिए, जबकि एकविध से लेकर अष्टप्रकारी तक की सभी पूजाएँ स्नान-विलेपन से रहित हैं। सर्वप्रथम आचारोपदेश नामक (१७ वीं शती की) कृति में अष्टप्रकारी पूजा के अन्तर्गत जलस्नान और चन्दन तिलकों का विधान उपलब्ध होता है। इससे निर्विवाद सिद्ध है कि नित्य-स्नान-विलेपन पद्धति अर्वाचीन है।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थ प्रयोजन की दृष्टि से एक श्लोक दिया गया है। कृति के अन्त में प्रशस्ति रूप दो पद्य लिखे गये हैं। उनमें कहा है इस ग्रन्थ में मेरे द्वारा पूजाविधि का जो स्वरूप उद्धृत किया गया है या दिखाया गया है वह पूर्व रचित शास्त्रों का ही अनुकरण है। इसके साथ यह भी उल्लेख किया गया है कि यह कृति वि.सं. २०२२ में, माघकृष्णा अष्टमी के शुभ दिन में एवं जावालिपुर नगर में पूर्ण हुई। जिनस्नात्रविधि
यह कृति श्री जीवदेवसूरि द्वारा विरचित है।' इस कृति पर श्री समुद्रसूरि ने पंजिका लिखी है। यह प्राकृत के ५४ पद्यों में निबद्ध है। इसका गुजराती भाषान्तर श्री लालचन्द-भगवानजी गाँधी ने किया है सम्भवतः यह कृति वि.सं. की १० वीं शती के आस-पास की है इसका एक प्रमाण यह है कि इसकी पंजिका वि.सं. २००६ में लिखी गई है। इस कृति के ग्रन्थकार एवं पंजिकाकार का विस्तृत परिचय प्रकाशित पुस्तक के साथ उल्लिखित है। इसमें जिनप्रतिमा की स्नात्रविधि का शास्त्रोक्त वर्णन हुआ है। इस कृति में स्नात्रविधि के मूल एवं मुख्य अंश देखने को मिलते हैं।
इसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- ग्रन्थ के प्रारम्भ में जिनेश्वर को प्रणाम करके पद्म एवं पुस्तक से विभूषित वर देने वाली श्रुतदेवी का स्मरण किया है। उसके बाद प्रभु महावीर के गुणों की स्तुति की गई है। तदनन्तर
' यह कृति वि.सं. २०२१ में, जैन साहित्य विकास मण्डलम् वीलेपारले, मुंबई ५६ से प्रकाशित हुई है।
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