________________
निरूपण हुआ है'। इसमें कायोत्सर्ग का अर्थ व्रण चिकित्सा किया है। व्रण दो प्रकार का बताया है (१) कायोत्थ तदुद्भव और ( २ ) परोत्थ आगन्तुक े। इसमें दोनों प्रकार के व्रण की चिकित्सा करने सम्बन्धी अलग-अलग विधियाँ कही गई हैं। कायोत्सर्ग की व्याख्या ग्यारह द्वारों के आधार पर की है। उन ग्यारह द्वारों के नाम ये हैं - १. निक्षेप, २. एकार्थक शब्द, ३. विधान मार्गणा, ४. काल प्रमाण, ५. भेद परिमाण, ६. अशठ, ७. शठ, ८. विधि, ६. दोष, १०. अधिकारी, ११. फल' इसमें कायोत्सर्ग विधि का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि गुरू के समीप ही कायोत्सर्ग प्रारम्भ करना चाहिए तथा गुरू के समीप ही समाप्त करना चाहिए। कायोत्सर्ग के समय दाहिने हाथ में मुखवस्त्रिका और बाएँ हाथ में रजोहरण रखना चाहिए। *
४
प्रत्याख्यान नामक षष्ठम अध्ययन में प्रत्याख्यान पर छः दृष्टियों से विचार किया गया है १. प्रत्याख्यान, २. प्रत्याख्याता, ३. प्रत्याख्येय, ४. पर्षद्, ५. कथनविधि और, ६. फल।' इसके साथ ही इसमें प्रत्याख्यान के छः भेद, प्रत्याख्यान शुद्धि के छः प्रकार, चार प्रकार के आहार की विधियाँ, प्रत्याख्यान के दस प्रकार ̈ आदि भी विवेचित हैं। प्रत्याख्याता का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि प्रत्याख्याता गुरु होता है जो यथोक्त विधि से शिष्य को प्रत्याख्यान कराता है। गुरु मूलगुण और उत्तरगुण से शुद्ध तथा प्रत्याख्यान की विधि जानने वाला होता है। शिष्य कृतकर्मादि की विधि जानने वाला, उपयोग परायण, ऋजुप्रकृति वाला, संविग्न और स्थिरप्रतिज्ञ होना चाहिए।
८
अन्ततः प्रत्याख्यान के फलद्वार का व्याख्यान करते हुए इस द्वार की निर्युक्ति के साथ आवश्यकनियुक्ति समाप्त होती है। आवश्यकनियुक्ति के इस विस्तृत परिचय से यह अनुमान किया जा सकता है कि निर्युक्ति साहित्य में आवश्यक नियुक्ति का कितना महत्त्व है ? श्रमण जीवन की सफल साधना के लिए अनिवार्य सभी प्रकार के विधि-विधानों का संक्षिप्त एवं सुव्यवस्थित निरूपण आवश्यक निर्युक्ति की बहुत बड़ी विशेषता है। जैन परम्परा से
आवश्यक नियुक्ति गाथा, १४१३
२ वही गा . १४१४
३ वही गा . १४२१
४
वही गा . १५३६ - १५४०
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 141
५ वही गा. १५५०
६ वही गा . १५८०
७ वही गा. १५६१ - १६०६ ८ वही गा. १६०६-६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org