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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 341 प्रायश्चित्त सामाचारी - इसके कर्त्ता तिलकाचार्य है। प्रायश्चित्त प्रदान विचार बडी के ज्ञानभंडार में मौजूद है। प्रायश्चित्त निरूपण यह ग्रन्थ दिगम्बर मुनि सोमसेन ने रचा है। प्रायश्चित्तविशुद्धि यह रचना सूरत के ज्ञानभंडार में उपलब्ध है। प्रायश्चित्त विधान - यह मुनि हंससागरजी के ज्ञानभंडार में सुरक्षित है। प्रायश्चित्त- इसके कर्त्ता विद्यानन्दी है । उनकी यह रचना संस्कृत में हैं। प्रायश्चित्त यह रचना इन्द्रनन्दी की प्राकृत में है। प्रायश्चित्त यह रचना अकलंक की है। इसमें ६० श्लोक है। यह श्रावकाचार के नाम से प्रसिद्ध है। यह मुंबई से वि.सं. १६७८ में प्रकाशित हुई है। प्रायश्चित्त यह अज्ञातकर्तृक है। इसके अन्त में ६० गाथाएँ क्रमबद्ध है। बृहत्कल्पसूत्र जैन आगम साहित्य में बृहत्कल्प सूत्र का अति महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । छेदसूत्रों में इसका दूसरा स्थान है। अन्य छेदसूत्रों की भाँति इस सूत्र में भी श्रमणों के आचार विषयक विधि - निषेध, उत्सर्ग - अपवाद, तप, प्रायश्चित्त आदि का चिन्तन किया गया है। इसमें छह अध्ययन हैं, ८१ अधिकार हैं। इसका ग्रंथमान ४७३ श्लोक परिमाण है। इसमें कुल २०६ सूत्र हैं। यह कृति गद्य में है। - Jain Education International - - कल्प का अर्थ - प्रस्तुत सूत्र में 'कल्प' शब्द का अर्थ आचार मर्यादा है। जिस शास्त्र में साधु आचार की मर्यादाओं एवं आचार विधियों का वर्णन हो, वह कल्प कहलाता है। जिस सूत्र में प्रभु महावीर, प्रभु पार्श्वनाथ, प्रभु अरिष्टनेमि और प्रभु ऋषभदेव के जीवनवृत्त के साथ-साथ साधु सामाचारी का वर्णन हो, वह पर्युषणा कल्प होने से लघुकल्प के नाम से जाना जाता है। जिस शास्त्र में साधुओं की आचार मर्यादा का विस्तृत वर्णन हो, वह बृहत्कल्प कहलाता है। इसमें सामायिक, छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि इन तीनों चारित्रों के विधि-विधानों का सम्यक् वर्णन है। - यहाँ ध्यातव्य है कि पर्युषणाकल्प ( कल्पसूत्र ) से प्रस्तुत कल्पसूत्र का नाम भिन्न दिखाने के लिए इसका नाम 'बृहत्कल्प' रख दिया गया है। वस्तुतः 'बृहत्कल्प' नाम का कोई आगम नहीं है। नंदीसूत्र में इसका नाम 'कप्पो' है। इस ग्रन्थ का विधि-विधान परक विवरण इस प्रकार हैप्रथम उद्देशक इस उद्देशक में ५० सूत्र है। इसमें प्रथम के पाँच सूत्र तालप्रलंब विषयक है। इसमें निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के लिए तालप्रलंब को ग्रहण करने का निषेध किया गया है, किन्तु विधिपूर्वक विदारित, पक्वतालप्रलंब लेना कल्प्य है, ऐसा प्रतिपादित किया गया है। इसके आगे मासकल्प विषयक नियम में श्रमणों के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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