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________________ 342/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य ऋतुबद्धकाल-हेमन्त और ग्रीष्मऋतु के ८ महिनों में एक स्थान पर रहने के अधिकतम समय का विधान किया गया है। श्रमणों को प्राचीर के अन्दर एवं प्राचीर से बाहर निम्नोक्त १६ प्रकार के स्थानों में वर्षाऋतु के अतिरिक्त अन्य समय में एक साथ, एक मास से अधिक ठहरना नहीं कल्पता है। वे १६ स्थान ये हैं - १. ग्राम- जहाँ राज्य की ओर से १८ प्रकार के कर लिये जाते हों। २. नगरजहाँ १८ प्रकार के कर न लिये जाते हों। ३. खेट- जिसके चारों ओर मिट्टी की दीवार हो। ४. कर्बट- जहाँ कम लोग रहते हों। ५. मडम्ब- जिसके बाद ढाई कोस तक कोई गाँव न हो। ६. पत्तन- जहाँ सब वस्तुएँ उपलब्ध हों। ७. आकर- जहाँ धातु की खाने हों। ८. द्रोणमुख- जहाँ जल और स्थल को मिलाने वाला मार्ग हो, जहाँ समुद्री माल आकर उतरता हो। ६. निगम- जहाँ व्यापारियों की बस्ती हो। १०. राजधानी- जहाँ राजा के रहने का महल आदि हो। ११. आश्रम- जहाँ तपस्वी आदि रहते हो। १२. निवेश- सन्निवेश जहाँ सार्थवाह आकर उतरते हो। १३. सम्बाध-संबाह- जहाँ कृषक रहते हों अथवा अन्य गाँव के लोग अपने गाँव से धन आदि की रक्षा निमित्त पर्वत, गुफा आदि में आकर ठहरे हुए हों। १४. घोष- जहाँ गाय आदि चराने वाले ग्वाले रहते हों। १५. अंशिका- गाँव का अर्ध, तृतीय अथवा चतुर्थभाग १६. पुटभेदन- जहाँ पर गाँव के व्यापारी अपनी चीजें बेचने आते हों। इस प्रकार विधि-निषेध रूप एवं विधि-विधान रूप अनेक प्रसंगों की चर्चा की गई हैं हम उनका विस्तृत वर्णन न करते हुए नामनिर्देश मात्र कर रहे हैं। यथावश्यक स्पष्टीकरण किया जाने का भी प्रयास रहेगा। पुनः प्रथम उद्देशक में ये विधान उल्लिखित हैं - १. साध-साध्वी के तालप्रलंब ग्रहण करने संबंधी विधि-निषेध २. ग्रामादि में साधु-साध्वी के रहने की कल्पमर्यादा। ३. ग्रामादि में साधु-साध्वी के एक साथ रहने सम्बन्धी विधि-निषेध। ४. आपणगृह आदि में साधु-साध्वियों के रहने सम्बन्धि विधि-निषेध। ५. बिना द्वार वाले स्थान में साधु-साध्वी के रहने की विधि। ६. साधु-साध्वी को घटीमात्रक ग्रहण करने के विधि-निषेधा ७. चिलमिलिका (मच्छरदानी) ग्रहण करने का विधान। ८. सागारिक की निश्रा लेने का विधान। ६. गृहस्थ युक्त उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध १०. प्रतिबद्ध शय्या में ठहरने के विधि-निषेध। ११. विहार सम्बन्धी विधि-निषेध। १२. गोचरी आदि में नियंत्रित वस्त्र आदि के ग्रहण करने की विधि १३. रात्रि में आहारादि की गवैषणा का आपवादिक विधान १४. आर्यक्षेत्र में विचरण करने का विधान। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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