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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/339
प्रायश्चित्त ग्रन्थ
यह कृति संस्कृत पद्य में है। इसमें केवल श्रावकों के प्रायश्चित्त का निरूपण है। इसकी श्लोक संख्या ८८ है। इसमें कोई प्रशस्ति आदि नहीं है, केवल आदि और अन्त में इसके कर्ता का नाम श्रीमद् भट्टाकलंकदेव बतलाया गया है। परन्तु जान पड़ता है कि ये तत्त्वार्थ, राजवार्तिक आदि महान ग्रन्थों के कर्ता अकलंकदेव से भिन्न कोई दूसरे ही विद्वान होंगे। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि प्रतिष्ठा-पाठ के कर्ता अकलंक ही इसके रचयिता हो।
इतना निश्चित है कि प्रतिष्ठा पाठ के कर्ता अकलंक १५ वीं शती के बाद हुए हैं। उन्होंने आदिपुराण, ज्ञानार्णव, एकासन्धिसंहिता, सागारधर्मामृत, आशाधर- प्रतिष्ठापाठ, बह्मसूरि त्रिवर्णाचार, नेमिचन्द्र-प्रतिष्ठापाठ आदि ग्रन्थों के बहुत से पद्य अपने ग्रन्थ में लिये हैं। अतएव वे इन सब ग्रन्थकर्ताओं के बाद के विद्वान् हैं, यह कहना कोई असंगत नहीं होगा। इस ग्रन्थ की रचना शैली से भी मालूम होता है कि न तो यह उतना प्राचीन ही है और न भट्ट अकलंकदेव की रचनाओं के समान इसमें कोई प्रौढ़ता ही है।
इसमें 'मोक्कुला' शब्द जो बीसों जगह आया है वह संस्कृत नहीं है, देशभाषीय है। गुजराती और मारवाड़ी में 'मोकला' शब्द विपुलता का या अधिकता का वाचक है। लघु अभिषेक और मोकला अर्थात् बड़ा अभिषेक आदि और भी ऐसी कई बातें हैं जिनसे इसकी अर्वाचीनता प्रकट होती है; जैसे अनेक अपराधों के दण्ड में गौओं का दान और ताम्बूलदान। जहाँ तक मेरी जानकारी है कि अनेक जैन आचार्यों ने 'गो-दान' का निषेध किया है। इसके सिवाय इस ग्रन्थ का पूर्व के तीन प्रायश्चित्त ग्रन्थों के साथ मतभेद भी मालूम होता है उदाहरण के लिए यह श्लोक द्रष्टव्य है -
जननीतनुजादीनां चाण्डालादिस्त्रियामपि ।
संभोगे सति शुद्धयर्थं पंचाशदुपवासकाः ।। अर्थात् माता, पुत्री चाण्डाली आदि के साथ व्यभिचार करने वाले को पंचाशत् उपवास करने चाहिए; परन्तु अन्य तीनों ग्रन्थों, यथा प्रायश्चित्तचूलिका, छेदपिण्ड, छेदशास्त्र में इस पाप के प्रायश्चित्त में बत्तीस उपवास लिखे है। इसी तरह अन्यान्य पापों के प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में भी मतभेद है।
निष्कर्षतः यह कृति अर्वाचीन है।' हमें जिनरत्नकोश (पृ. २७६-२८०)
' यह ग्रन्थ 'प्रायश्चित्तसंग्रह' के नाम से माणिकचन्द्र-दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, हीराबाग, मुंबई नं. ४ से प्रकाशित हुआ है।
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