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________________ 136/षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य डायरी है जिसमें साधक अपने दोषों की सूची लिखकर एक-एक दोष से मुक्त होने का उपक्रम करता है। वही कुशल व्यापारी कहलाता है जो प्रतिदिन सायंकाल देखता है कि आज के दिन मुझे कितना लाभ प्राप्त हुआ है या कितनी हानि हुई? प्रतिक्रमण जीवन को सुधारने का श्रेष्ठ उपक्रम है। विभिन्न दृष्टियों से प्रतिक्रमण के दो, पाँच, छह प्रकार' बताये गये हैं। इसका विस्तृत प्रतिपादन लगभग इसी शोध के चतुर्थ खण्ड में करेंगे। इसमें चतुर्थ आवश्यक के समय बोलने योग्य निम्न सूत्रों का विवरण उपलब्ध होता है। १. पगामसज्झायसूत्र इसमें मुख्य रूप से शय्या एवं निद्रा सम्बन्धी दोष निवृत्ति सूत्र, भिक्षादोष निवृत्ति-सूत्र, स्वाध्याय-दोष तथा प्रतिलेखना-दोष निवृत्ति सूत्र, एक से लेकर तैंतीस बोल पर्यन्त दोष निवृत्ति सूत्र दिये गये हैं। २. क्षामणासूत्रआयरिय उवज्झाय सूत्र ३. प्रणिपातसूत्र ४. आलोचना सूत्र आदि। पंचम कायोत्सर्ग आवश्यक - जैन साधना पद्धति में कायोत्सर्ग का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसको व्रणचिकित्सा कहा गया है। सतत सावधान रहने पर भी प्रमाद आदि के कारण साधना में दोष लग जाते हैं, उन दोष रूपी घावों को ठीक करने के लिए कायोत्सर्ग एक प्रकार का मरहम है। कायोत्सर्ग में काय और उत्सर्ग ये दो शब्द है। जिसका तात्पर्य हैं- काया का त्याग। यहाँ पर शरीर त्याग का अर्थ है- शारीरिक चंचलता और देहासक्ति का त्याग। कायोत्सर्ग अन्तर्मुखी होने की एक पवित्र साधना है। कायोत्सर्ग से शारीरिक ममत्व भाव कम हो जाता है। शरीर की ममता साधना के लिए सबसे बड़ी बाधा है। शरीर की ममता कम होने पर ही साधक आत्मभाव में लीन रह सकता है। जैन विचारणा में साधक जो भी कार्य करें, उस कार्य के पश्चात् कायोत्सर्ग करने का विधान है, जिससे वह शरीर की ममता से मुक्त हो सके। प्रस्तुत कृति में कायोत्सर्ग करने का निर्देश मात्र किया गया है। तत्सम्बन्धी सूत्रों का कोई उल्लेख नहीं हैं, किन्तु संप्रति में उसके पूर्व अन्नत्थसूत्र आदि बोले जाते हैं। षष्टम प्रत्याख्यान आवश्यक- प्रत्याख्यान का अर्थ है- त्याग करना। अविरति और असंयम से हटने हेतु प्रतिज्ञा ग्रहण करना प्रत्याख्यान है। इस विराट् विश्व में इतने अधिक पदार्थ हैं जिनकी परिगणना करना सम्भव नहीं है और उन सब वस्तुओं को एक ही व्यक्ति भोगे, यह भी सम्भव नहीं है, किन्तु मानव की इच्छाएँ तो असीम हैं। इच्छाओं के कारण मानव मन में सदा अशान्ति बनी रहती है। उस अशान्ति को नष्ट करने का एक मात्र उपाय प्रत्याख्यान है। स्थानांग ६/५३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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