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स्वकथ्य
जैन धर्म उपासनाप्रधान निवृत्तिमूलक धर्म है। इस धर्म संघ में निवृत्तिमूलक साधना को मुख्य और प्रवृत्तिमूलक साधना को गौण स्थान दिया गया है। वस्तुतः साधना के दो पक्ष हैं, भाव उपासना और द्रव्य उपासना। इसे निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म भी कहा जा सकता है।
मूलतः भाव उपासना आभ्यन्तर और द्रव्य उपासना बाह्य होती है। यद्यपि भाव और द्रव्य दोनों का अस्तित्व भिन्न-भिन्न हैं, तथापि एक सीमा तक ये अन्योन्याश्रित भी रहते हैं।
भारतीय मनीषा कहती है-भाव साधना की ओर उन्मुख होने या भाव साधना में प्रवेश करने का मुख्य द्वार द्रव्य अर्थात् बाह्यविधान है। सिद्धान्ततः भी नीचे से ऊपर की ओर जाया जाता है। इस दृष्टि से साधना का प्रथम चरण द्रव्य पक्ष और द्वितीय चरण भाव पक्ष है और भाव के समन्वित स्वरूप में ही 'विधि-विधान' अपना अभिधान पाते हैं। __ वर्तमान युग में भौतिकवादी संस्कृति के तले कर्मकाण्डमूलक आराधनाओं का सिलसिला बढ़ता हुआ नजर आ रहा है। इससे द्रव्योपासना अर्थात् धर्म के बाह्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति बलवती बन रही है, किन्तु भावोपासना निर्बलता के कगार पर खड़ी है। यही कारण है कि निवृत्यात्मक धर्म भी प्रवृत्यात्मक बन गया है। इस कथन का अर्थ यह नहीं है कि द्रव्योपासना को स्थान ही न दिया जाये, परन्तु उसे सर्वेसर्वा मानते हुए भावोपासना की उपेक्षा करना अनुचित है। अतएव दोनों को यथानुरूप स्थान दिया जाये, इसी में आराधक वर्ग की उपासना का साफल्य और विधि-विधान का वैशिष्ट्य है।
वस्तुतः विधि-विधान क्या है? और जीवन में इनकी उपादेयता कितनी है? इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में इन बिन्दुओं पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। अतः यहाँ उनका
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