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544 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
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ये छः नाम कहे गये हैं।' उसके बाद इस ग्रन्थ में कहे जाने वाले दस अधिकारों के नाम दिये गये हैं। न अधिकारों की विषयवस्तु संक्षेप में इस प्रकार है पहले अधिकार का नाम 'मंत्र साधक - लक्षण' है। इसमें मंत्रसिद्ध करने वाले साधक के विविध लक्षण दिये गये हैं; जैसे कि मंत्र सिद्ध करने वाला साधक काम, क्रोध आदि के ऊपर विजय प्राप्त करने वाला हो, जिनेश्वर परमात्मा और पद्मावती का भक्त हो, मौन व्रत का अभ्यासी हो, उद्यमी हो, संयमनिष्ठ हो, सत्यवादी हो, दयालु और मंत्र के बीजभूत पदों का अवधारण करने वाला हो । दूसरा अधिकार 'सकलीकरणविधि' नाम का है। इस अधिकार में मंत्र - साधक द्वारा की जाने वाली आत्मरक्षा के बारे में, साध्य और साधक के अंश गिनने की रीति के विषय में तथा कौन सा मंत्र कब सफल होता है? इसके सम्बन्ध में जानकारी दी गई है। तीसरे अधिकार का नाम 'देवीपूजाक्रम' है। इस अधिकार में मुख्यतः मन्त्रों एवं यन्त्रों की सिद्धिसम्बन्धी विधि, हवनविधि, भगवान पार्श्वनाथ के यक्ष की साधना विधि आदि वर्णित है। इसके अनन्तर शान्ति, विद्वेष, वशीकरण, बन्ध, स्त्री - आकर्षण और स्तम्भन ये छः प्रकार के कर्म कहे हैं। इन कर्मों को सिद्ध करने के लिए क्रमशः दीपन, पल्लव, सम्पुट, रोधन, ग्रथन और विदर्भन की विधि जाननी चाहिए उसके बाद ही अनुष्ठान करना चाहिए ऐसा उल्लेख है। इसके साथ ही उक्त छः कर्मों को सिद्ध करने के सम्बन्ध में काल, दिशा आदि का विचार किया गया है यथा १. काल - कौनसा कर्म किस समय सिद्ध करना चाहिए २. दिशा- कौनसा कर्म किस दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए ३. मुद्राकिस कर्म में कौनसी मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए ४. आसन - कौनसा कर्म किस आसन में करना चाहिए ५. वर्ण- कौन सा कर्म किस वर्ण (रंग) द्वारा सिद्ध करना चाहिए ६ मन्त्र - किस कर्म में कौनसे मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए ७. जाप - किस कर्म का जाप किस माला एवं किस अंगुली द्वारा करना चाहिए इत्यादि ।
तदनन्तर पद्मावतीदेवी की आराधना हेतु गृहयंत्र द्वार, दशलोकपाल एवं आठ देवियों की स्थापनाविधि कही गई है। इसी क्रम में निर्देश हैं कि पद्मावती देवी की आह्नानादि पाँच प्रकार से पूजा करनी चाहिए । इस सम्बन्ध में पंचोपचार१. आह्वान २. स्थापन ३. सन्निधि ४ पूजन और ५. विसर्जन विधि बतायी गई है। इसके साथ ही चिंतामणी यंत्र के विषय में जानकारी प्रस्तुत की गई है।
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ये नाम पद्मावती के भिन्न-भिन्न वर्ण एवं हाथ में रही हुई भिन्न-भिन्न वस्तुओं के आधार पर दिये गये हैं। इनकी स्पष्टता 'अनेकान्त' ( वर्ष १. पृ. ४३० ) में की गई है।
उद्घृत - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ४
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