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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/643 विषय के स्पष्टीकरण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। ७. प्रस्तुत टीका में सन्दभों को प्रस्तुत करते समय पूर्वाचार्यों के मान्यता सम्बन्धी मतभेदों और पाठान्तरों आदि का भी उल्लेख किया है और इस प्रकार प्रस्तुत टीका विवेचनात्मक होने के साथ-साथ तुलनात्मक भी बन गई है। ८. प्रस्तुत ग्रन्थ और स्वोपज्ञ टीका का संशोधन सर्वप्रथम लेखक के समकालीन जैन विद्या के महान् विद्वान उपाध्याय यशोविजयजी ने किया था। तदनन्तर व्याकरण, छन्द, काव्य आदि दृष्टि से इसका पुनर्सशोधन वाचकेन्द्र लावण्यविजयजी ने किया। इस प्रकार यह मूलग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञटीका दोनों ही विधि-विधान संबंधी जैन साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते है यही कारण है कि आचार्य सागरानंदसूरी ने 'धर्मसंग्रह' की संस्कृत प्रस्तावना में इस ग्रन्थ को 'ग्रन्थराज' कहकर इसके महत्त्व का प्रतिपादन किया है। हम मूलग्रन्थ के अत्यन्त संक्षिप्त होने के कारण इसकी विषयवस्तु का विवरण स्वोपज्ञटीका के आधार पर ही कर रहे हैं। सर्वप्रथम इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में इस ग्रन्थ की स्वोपज्ञ टीका रचने के निमित्त मंगलाचरण किया गया है। उसके बाद दो श्लोकों के द्वारा मंगल के रूप में प्रभु महावीर को नमस्कार करके सद्गुरु की परम्परा से सम्प्राप्त तथा स्वानुभव ज्ञान से निर्णीत, आगमरहस्य के सारभूत उत्तम धर्म के संग्रह रूप ग्रन्थ रचना करने की प्रतिज्ञा की गई है। अन्त में ग्रन्थ की समाप्ति रूप अंतिम मंगल किया गया है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु चार अधिकारों (विभागों) में विभक्त है। प्रथम अधिकार में 'सामान्य गृहस्थधर्म की विधि' वर्णित है, द्वितीय अधिकार में 'विशेष गृहस्थधर्म की विधि' कही गई है, तृतीय अधिकार में 'सापेक्ष यतिधर्म की विधि' विवेचित है, चतुर्थ अधिकार में 'निरपेक्ष यतिधर्म की विधि' निरूपित है। इन अधिकारों का संक्षिप्त वर्णन निम्नोक्त है - प्रथम अधिकार - इस प्रथम अधिकार में मूलग्रन्थ के मात्र २० श्लोक हैं यह अधिकार निम्न विधियों के स्वरूप का विवेचन करता है १. धर्म के स्वरूप को जानने एवं समझने की विधि- इसके अन्तर्गत मैत्री, प्रमोद आदि चार भावनाओं का विवेचन किया गया है। २. धर्म में प्रवेश करने की विधि इसके अन्तर्गत मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों का प्रतिपादन किया गया है। ३. धर्म करने की सम्यक् विधि इसमें धर्मोपदेश का स्वरूप विवेचित है। साथ ही सद्धर्म की आराधना के लिए जीव में विशेष योग्यता होनी चाहिए, इसका प्रतिपादन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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