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58/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
महापुराण (आदिपुराण-उत्तरपुराण गर्भित) श्रावकधर्म
'महापुराण' यह जैन साहित्य की अनमोल कृति' है। इसमें त्रेसठशलाकापुरुषों का जीवनवृत्त सविस्तृत निरूपित हुआ है। यह दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग 'आदिपुराण' और द्वितीय भाग 'उत्तरपुराण' के नाम से प्रसिद्ध है। आदिपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन है तथा उत्तरपुराण के रचयिता जिनसेनाचार्य के शिष्य आचार्य गुणभद्र है।
यहाँ पुराण शब्द का तात्पर्य- प्राचीन महापुरूषों के जीवनवृत्त एवं उनके उपदेशों को प्रस्तुत करना है। इस दृष्टि से महापुराण का अर्थ होता है महाकल्याण करने वाली बातों को निरूपित करने वाला ग्रन्था . महापुराण का प्रथम भाग जो आदिपुराण के नाम से जाना जाता है उसके कुछ सर्ग विधि-विधान से सम्बन्ध रखते हैं। वस्तुतः यह ग्रन्थ संस्कृत के १६२०७ श्लोक में निबद्ध है। इसमें ७६ क्रियाकाण्ड एवं पूजाविधान से सम्बन्धित है। ३८ वे पर्व में ३१३, ३६ वे पर्व में २११ और ४० वे पर्व में २२३ श्लोक हैं।
प्रस्तुत कृति के उक्त पर्यों में यह उल्लेख हैं कि जब भरतचक्रवर्ती दिगविजयी होकर लौटते हैं उनके हृदय में यह विचार उठता है कि मेरी सम्पत्ति का सदुपयोग कैसे हो? मुनिजन तो धन रखते नहीं है। अतः गृहस्थों की परीक्षा करके जो व्रती सिद्ध हुए उनका दानमानादि से अभिनन्दन करते हैं
और उनके लिए इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश देते हैं। यहाँ इज्या नाम पूजा का है। उसके नित्यग्रह, महामह, चतुर्मुखमह और कल्पद्रुममह ये चार भेद कहे हैं। इसमें इसकी विधि और इस पूजा के अधिकरी बताये गये हैं। विशुद्धवृत्ति से कृषि आदि के द्वारा जीविकोपार्जन करना वार्ता है। पुनः दत्ति के चार भेदों का उपदेश दिया गया है। स्वाध्याय, संयम एवं तप के द्वारा आत्मसंस्कार का उपदेश देकर उनकी ब्राह्मण संज्ञा घोषित की है तथा ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) से चिहितकर श्रावक के लिए करने योग्य तीन क्रियाओं का वर्णन किया गया हैं।
प्रथम गर्भान्वयी क्रियाओं के ५३ भेदों का पृथक्-पृथक् वर्णन ३८ वें पर्व में किया गया है। दूसरी दीक्षान्वयी क्रियाओं के ८ भेदों का विस्तृत वर्णन ३८ वें पर्व में किया गया है तथा तीसरी कन्वयी क्रिया के ७ भेदों का सुन्दर वर्णन पुनः इसी पर्व में किया गया है।
' इस कृति का अनुवाद डॉ. पन्नालाल जैन ने किया है। यह ग्रन्थ 'भारतीय ज्ञानपीठ-नई दिल्ली' से सन् १६४४ में प्रकाशित हुआ है।
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