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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/57
दशवीं शती का अन्तिम चरण और ग्यारहवीं शती का प्रथम चरण माना है।
प्रस्तुत कृति में प्रसंगवश चौदह गुणस्थानों का वर्णन हुआ है। उसमें पंचमगुणस्थान के अधिकार में श्रावकाचार का उल्लेख किया गया है। जिसमें धर्मध्यान की प्राप्ति के लिए सालम्ब और निरालम्ब ध्यान की चर्चा है। सालम्बध्यान के लिए देवपूजा, जिनाभिषेक, सिद्धचक्रयंत्र, पंचपरमेष्ठीयंत्र आदि की आराधना करने का विस्तृत वर्णन किया है। देवपूजन के वर्णन में शरीरशुद्धि, आचमन और सकलीकरण का विधान है। अभिषेक के समय अपने में इन्द्रत्व की कल्पनाकर और शरीर को आभूषणों से मंडित कर सिंहासन को सुमेरु मानकर उस पर जिन-बिम्ब को स्थापित करने, दिग्पालों का आह्वान करके उन्हें पूजन-द्रव्य आदि यज्ञांश प्रदान करने का भी विधान किया गया है। इस प्रकरण में पूजन के आठों द्रव्यों को चढ़ाने में फल का भी वर्णन किया है और पूर्व में आहूत देवों के विसर्जन का भी निर्देश किया है। भावसंग्रहगत-श्रावकाचार (सं.)
यह कृति' प्राकृत भावसंग्रह के आधार को लेकर रची गई है। इस कृति के प्रणेता पं. वामदेव है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावकधर्म का वर्णन किया गया है। सामायिकशिक्षाव्रत के अन्तर्गत जिनपूजा का विधान और उसकी विस्तृत विधि का वर्णन प्राकृत भावसंग्रह के समान ही किया गया है। अतिथिसंविभागवत का वर्णन दाता, पात्र, दानविधि और देयवस्तु के साथ विस्तार से किया गया है। तीसरे प्रतिमाधारी के लिए 'यथाजात' होकर सामायिक करने का विधान किया गया है। शेष प्रतिमाओं का वर्णन परम्परा के अनुसार ही है। इसी क्रम में आगे श्रावक के षटकर्त्तव्यों का, पूजा के भेदों का, चारों दानों का वर्णन किया गया है। अन्त में पुण्योपार्जन करते रहने का उपदेश दिया गया है। इसमें वर्णित ग्यारह प्रतिमाओं के वर्णन पर रत्नकरण्ड के अनुसरण का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है, पर इसमें ग्यारहवीं प्रतिमाधारी के दो भेदों का उल्लेख किया गया है।
पं. वामदेव ने भावसंग्रह के अतिरिक्त १. प्रतिष्ठासूक्तिसंग्रह २. त्रैलोक्यदीपक ३. त्रिलोकसारपूजा ४. तत्त्वार्थसार ५. श्रुतज्ञानोद्यापन और ६. मन्दिरसंस्कारपूजन नामक ये छह ग्रन्थ भी रचे हैं।
' यह संग्रह सानुवाद 'श्रावकाचार संग्रह' भा. ३ में प्रकाशित है।
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