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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/79 बावीसवाँ द्वार- इस द्वार में श्रावक के द्वारा स्वजन-कुटुम्ब, पत्नी-पुत्रादि के समक्ष किस प्रकार की धार्मिक चर्चा की जानी चाहिये, इसकी विधि बतायी गई है। इसमें उल्लेख है कि श्रावक को सन्ध्याकालीन प्रतिक्रमण, सामायिक, गुरुसेवा आदि आवश्यक कृत्य सम्पन्न करके घर आना चाहिये। फिर पत्नी-पुत्रादि के आगे धर्मचर्चा करनी चाहिये। जो श्रावक धर्मचर्चा नहीं करता है वह दोष का भागी होता है। यहाँ उसमें लगने वाले दोष भी कहे गये हैं। पुनः धर्म चर्चा में द्रव्य और भाव से स्वजनादि वर्ग की आवश्यकता का चिन्तन करना चाहिये। साधर्मिक व्यक्तियों के बीच रहने की बात करनी चाहिये। अणुव्रतादि ग्रहण करने का उपदेश देना चाहिये। भोगोपभोगव्रत का विवरण कहना चाहिये। प्रतिदिन के लिए उपयोगी यतना रखने का व्याख्यान करना चाहिये। श्रावक के लिए अभिग्रह करने का कथन करना चहिये। जिनपूजादि के विषय का उपदेश कहना चाहिये। 'धर्म आराधना से ही मनुष्यत्वादि दुर्लभ सामग्री प्राप्त होती है' ऐसा भाव जगाना चाहिये इत्यादि। तेवीसवाँ द्वार- इस द्वार में यह वर्णन किया गया है कि शयन करते समय प्रायः श्रावक को ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने की भावना रखनी चाहिये। यदि मोहनीयकर्म के उदय से शीलव्रत का पालन नहीं कर सकता है तो उसके प्रति जुगुप्सा करनी चाहिये और मुनिमार्ग ग्रहण करने की भावना करनी चाहिये। ___ चौबीसवाँ-पच्चीसवाँ-छब्बीसवाँ द्वार- इन तीनों द्वारों में शरीर की अनित्यभावना का चिन्तन करते हुए स्त्री के प्रति विरक्त बनते हुए श्रावक को ब्रह्मचर्यव्रत पूर्वक शयन करना चाहिये, इसका विवेचन है। सत्ताईसवाँ द्वार- इस द्वार में श्रावक के लिए संसार की अनित्यता के बारे में चिन्तन करने की विधि कही गई है। ____ अट्ठाईसवाँ द्वार- इस द्वार में श्रावक के मूलगुण, अहिंसादि पाँचअणुव्रत और अहिंसादि नियम पालन में उपकारी बनने वाली ब्रह्मचर्य की नववाड, रात्रिभोजन का त्याग आदि का सविस्तार वर्णन किया गया हैं। उनतीसवाँ द्वार- इस अन्तिम द्वार में उत्तरगुण रूप पिण्डविशुद्धि का निरूपण किया गया है। इसके साथ ही आचार्य के ३६ गुण बताये गये हैं। प्रस्तुत शास्त्र का उपसंहार किया गया है इस ग्रन्थ को सुनकर अन्तर्मुखी बनने वाले भव्यजीवों की प्रशंसा की गई है तथा इस ग्रन्थ में कहीं गई विधियों का अनुकरण करने वाले सुश्रावकों को प्राप्त होने वाला फल बताया गया है। ___ उपर्युक्त विवेचन से यह फलित होता है कि, श्राद्धदिनकृत्य श्रावक की आचारविधि का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें श्रावक की दिनकृत्यविधियों का ही निरूपण नहीं हुआ है अपितु श्रावक योग्य समस्त विधि-विधानों का विवेचन हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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