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________________ 78/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य बारहवाँ द्वार- यह द्वार गुरुमहाराज की सुखपृच्छादि करने से सम्बन्धित है। तेरहवाँ द्वार- इस द्वार में यह निर्देश किया गया है कि गुरुभगवन्त आदि सभी साधुओं को सुखपृच्छादि करने के बाद यदि कोई साधु बीमार हो, वृद्ध हो, या नूतनदीक्षित हो तो उनकी आवश्यकतानुसार एवं स्वयं की शक्ति के अनुरूप औषधादि द्वारा सेवा करनी चाहिये। चौदहवाँ द्वार- इस द्वार में पन्द्रह प्रकार के कर्मादान सम्बन्धी व्यापार वर्जन का एवं व्यवहार शुद्धि रखने का श्रावक के लिए उपदेश किया गया है इसके साथ कुशील संसर्ग का त्याग और सत्संग करने का भी उपदेश दिया गया है। पन्द्रहवाँ द्वार- इस द्वार में सुश्रावक के लिए मध्याह वेला प्राप्त होने पर गृहबिम्ब की पूजा एवं गुरुमहाराज को वन्दन करने का विधान बतलाया है। इसके साथ ही आहार देने के लिए साधु को निमंत्रित करने की विधि एवं गृहांगन में पधारे हुए साधु को भक्तिभाव पूर्वक आहार प्रदान करने की विधि कही गई है। अनन्तर दानक्रिया का उत्सर्ग-अपवाद मार्ग के कथन, सुपात्रदान का फल, सर्वोत्तमदान का स्वरूप, वसतिदान का इहलौकिक-पारलौकिक फल, साधर्मिक वात्सल्य करने का उपदेश इत्यादि का विवेचन किया गया है। सोलहवाँ द्वार- इस द्वार में यथाविधि स्वाध्याय करने का उपदेश दिया गया है। सत्रहवाँ द्वार- इस द्वार में कहा गया हैं कि गृहस्थ श्रावक यदि सचित्त का त्याग करने में असमर्थ हों तो उसका परिमाण अवश्य करना चाहिये। इसके साथ यह भी निर्देश किया गया है कि श्रावक को सदैव एकाशन तप करना चाहिये, जो एकाशन तप नहीं कर सकता है वह कम से कम रात्रिभोजन तो नहीं ही करें। अठारहवाँ द्वार- इस द्वार में पुनः सायंकालीन जिनपूजा एवं गुरु को वन्दन करने का विधान बतलाया गया है। उन्नीसवाँ द्वार- इस द्वार में सामायिकविधि और आवश्यकविधि का निरूपण हुआ है। बीसवाँ द्वार- इसमें आवश्यक (प्रतिक्रमण) विधि और स्वाध्यायविधि करने के बाद गुरु को त्रिकाल सुखपृच्छा करनी चाहिये इसका विधान कहा गया है। ___ इक्कीसवाँ द्वार- इस द्वार में उल्लेख है कि सर्वप्रथम श्रावक षड़ावश्यकविधि का पालन करें, फिर गुरु भगवन्त आदि सभी मुनियों की सुखपृच्छा करे, उसके बाद यथायोग्य गुरुभगवन्त की सेवा करें। यदि साधु का योग न हो तो अपवाद मार्ग से अपने साधर्मी बन्धुओं का सेवादि कृत्य करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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