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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/101 विधि १२. मांडला एवं गोचरी में लगे हुए दोषों की प्रतिक्रमण विधि १३. दैवसिक प्रतिक्रमण विधि १४. दैवसिक प्रतिक्रमण की विशेष विधि १५. रात्रिक संथारा-पोरिसी पढ़ने की विधि १६. पाक्षिकादि प्रतिक्रमण विधि १७. छींकदोष निवारण विधि १८. मार्जारी के मंडली प्रवेश के दोष के निवारण की विधि १६. द्वादशावर्त्तवंदन विधि २०. पाक्षिक प्रतिक्रमण निमित्त दूसरे दिन पदस्थ गुरुजनों को वन्दन करने की विधि २१. सचित्त-अचित्त रज दूर करने (ओहडावण) की विधि २२. स्वाध्यायनिक्षेप विधि २३. स्वाध्याय उत्क्षेप (अस्वाध्याय को दूर करने) की विधि २४. लोच करने एवं करवाने की विधि २५. देववंदन विधि २६. मंडलरचना विधि प्रस्तुत ग्रन्थ के दूसरे भाग में संकलित किये गये विषय निम्न हैं - १. कायोत्सर्ग संबंधी दोष विचार २. द्वादशावत वंदन संबंधी विचार ३. छहमासी तप चिंतन विचार ४. शय्यातर विचार ५. आहार दोष विचार ६. मुँहपत्ति प्रतिलेखन विचार ७. उपकरण विचार (साधु के १४ उपकरण) (साध्वी के २५ उपकरण) ८. स्थंडिल प्रतिलेखन विचार ६. पंचमहाव्रत भावना विचार १०. संडाशक प्रमार्जन विचार ११. आस्वाध्याय (असज्झाय) विचार १२. प्रकीर्णक विचार १३. सूतक विचार १४. बारहव्रत तथा सर्व तपस्या उच्चारण (प्रतिग्रहण) विधि १५. सर्वतपस्या पारण विधि उत्तराध्ययनसूत्र उत्तराध्ययन अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध है।' यह आचार प्रधान आगमसूत्र है। इसमें साधु के आचार एवं तत्त्वज्ञान का सरल एवं सुबोध शैली में वर्णन किया गया है। इसमें उपमाओं की बहुलता है इसलिए विंटरनित्स ने इसे श्रमणकाल की कोटि में रखा है। दिगम्बर साहित्य में अंगबाह्य के १४ प्रकारों में दशवैकालिक का सातवाँ और उत्तराध्ययन का आठवाँ स्थान माना गया है। नंदिसूत्र के अन्तर्गत कालिक सूत्रों की गणना में उत्तराध्ययन का प्रथम स्थान है। वर्तमान में इसकी गणना मूलसूत्रों में की गई है। इसको मूलसूत्र क्यों माना गया है इस बारे में विद्वानों के अनेक मत हैं। पाश्चात्य विद्वान् शान्टियर के अनुसार इसमें महावीर के मूल शब्दों का संग्रह है, इसलिए इसे मूलसूत्र कहा जाता है। डॉ. शूबिंग ने साधु जीवन के मूलभूत नियमों का प्रतिपादक होने के कारण इसे मूलसूत्र कहा है। इसके विषय में सामान्य मान्यता यही है कि इसमें मुनि के मूलगुणों, महाव्रतों एवं समिति आदि का निरूपण होने के कारण यह मूलसूत्र उत्तराध्ययनसूत्र - मधुकरमुनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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