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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/595
है। इसमें यह बताया गया है कि कौनसा विधान कब और किस मुहूर्त में करना चाहिए। इसमें मुहूर्त सम्बन्धी विधि का प्रधानता के साथ प्रतिपादन हुआ है। गणिविद्या के नौ द्वारों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - १. तिथिद्वार - चन्द्रमा की एक कला को तिथि माना गया है। इसका निर्णय चन्द्र एवं सूर्य के अंतराशों के आधार पर किया जाता है। अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियाँ शुक्ल पक्ष की एवं पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक की तिथियाँ कृष्ण पक्ष की होती हैं। गणिविद्या में इन दोनों पक्षों की १५-१५ तिथियों का वर्णन किया गया है।
__ इन तिथियों का नामकरण नन्दा, भद्रा, विजया, रिक्ता, पूर्णा आदि रूपों में किया गया है। श्रमणों के लिए यह कहा गया हैं कि वह नन्दा, जया एवं पूर्णा संज्ञक तिथियों में शैक्ष को दीक्षित न करें। नन्दा एवं भद्रा तिथियों में नवीन वस्त्र धारण करें एवं पूर्णा तिथि में अनशन करें। २. नक्षत्रद्वार - तारों के समुदाय को नक्षत्र कहते हैं। इन तारा-समूहों से आकाश में अश्व, हाथी, सर्प, आदि की आकृतियाँ बनती हैं। इसी आधार पर नक्षत्रों का नामकरण किया गया है। आकाश मंडल में ग्रहों की दूरी नक्षत्रों से ज्ञात की जाती है। ज्योतिष शास्त्रों में २७ नक्षत्र माने गये हैं। अभिजित् को २८ वाँ नक्षत्र माना गया है। इसमें में संध्यागत, विड्वेर, रविगत, विलम्बित, राहुहत, संग्रह एवं ग्रहभिन्न इन सात नक्षत्रों के नाम भी दिये गये हैं।
इसके साथ ही इसमें उपस्थापना (बडीदीक्षा) योग्य, गणि योग्य, वाचक योग्य, प्रतिमा धारण करने योग्य एवं गुरु की सेवा तथा पूजा करने योग्य नक्षत्रों की भी चर्चा की गई है। ३. करण द्वार - तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। एक तिथि के दो करण होते हैं। गणिविद्या में ग्यारह करणों का उल्लेख मिलता है। यहाँ पर बताया गया है कि बव, बालव, कालव, वणिज नाग एवं चतुष्पद करण में प्रव्रज्या देनी चाहिए। बव नामक करण में, व्रतोपस्थापन एवं गणि, वाचक आदि पद प्रदान करने चाहिए। शकुनि एवं विष्टिकरण पादोपगमन संथारे के लिए शुभ माने गये हैं। ४. ग्रहदिवसद्वार - जिस दिन की प्रथम होरा का जो गृहस्वामी होता है उस दिन उसी ग्रह के नाम का वार अथवा दिवस रहता है। वार सात होते हैं - रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र एवं शनि। गणिविद्या में कहा गया है कि गुरु, शुक्र एवं सोमवार को दीक्षा एवं व्रतों में स्थापना करनी चाहिए और गणि, वाचक आदि पद प्रदान करने चाहिए। रवि, मंगल एवं शनि संयमसाधना एवं पादोपगमन आदि समाधिमरण का क्रियाओं के लिए शुभ है।
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