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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 489
मंगलगाथा का पाठ, प्रतिष्ठा फल की देशना, मध्यकालीन अंजनशलाका की विधि, नन्द्यावर्तआलेखन विधि, नन्द्यावर्त्तपूजन, प्रतिष्ठास्थान में प्रतिमा का प्रवेश, जलयात्राविधान, वेदी की स्थापना, दिक्पाल की स्थापना, प्रतिष्ठा का प्रारंभ, अधिवासना, जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा इत्यादि कृत्य करना - करवाना। उसके बाद संघसहित मंगल गाथाओं का पाठ करना, यक्ष-यक्षिणी की प्रतिष्ठा करना, नवीनप्रतिष्ठित बिंबदेवगृह स्थापना विधि करना, लवण-जल-आरती की विधि करना, कंकणमोचन करना और सभी देवी-देवताओं को विसर्जित करना। इस आठवें परिच्छेद में प्रतिष्ठा विषयक अन्य भी उपयोगी सामग्री का संकलन किया गया है प्रकारान्तर से कंकणमोचन विधि, प्रतिष्ठाविधि के बीज, श्रीचन्द्रप्रतिष्ठापद्धति के काव्य, परंपरागत प्रतिष्ठाबीज की गाथाएँ, ध्वजदण्डारोपणविधि की गाथाएँ, जिनप्रभसूरिकृत प्रतिष्ठाविधि के बीज ( गाथाएँ), स्थापनाचार्य प्रतिष्ठाविधि की गाथाएँ आदि ।
नवमाँ परिच्छेद- इसमें चैत्य प्रतिष्ठा विधि का वर्णन है । दशवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद में कलश के नौ अभिषेक एवं कलश की प्रतिष्ठा विधि का उल्लेख हुआ है। ग्यारहवाँ परिच्छेद- यह परिच्छेद ध्वजदंड की प्रतिष्ठा विधि से सम्बद्ध है। इसमें ध्वजदंड के तेरह अभिषेक, ध्वजा की प्रतिष्ठा, ध्वज गति का शुभाशुभ फल बताया गया है। बारहवाँ परिच्छेद- यह जिनबिंब की प्रवेश विधि से सम्बन्धित है। इस विधि के अन्तर्गत नवग्रह दशदिक्पाल की स्थापना विधि, स्थापित करने योग्य जिनबिम्बों को लेने के लिए जाने की विधि एवं तीन प्रकार के आसन यंत्र ( मूलप्रतिमा की पादपीठ के नीचे रखने योग्य यंत्र) दिये गये हैं। इसके साथ ही जिनबिंब प्रवेश से सम्बन्धित तीन विधियाँ और दी गई है। एक विधि १६ वीं शती में प्रचलित और हस्तप्रत के आधार पर तैयार करके उल्लिखित की है। दूसरी विधि वि.सं. १५४२ में लिखी गई है तथा गुणरत्नसूरिकृत प्रतिष्ठाकल्प और श्रीविशालराजशिष्यकृत प्रतिष्ठाकल्प के आधार से उद्धृत की गई है। तीसरी लगभग १६ वीं शती के उत्तरार्ध में लिखी गई है। वह प्राचीन प्रत के आधार से तैयार करके उल्लिखित की गई है।
तेरहवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद में वादिवेताल शान्तिसूरिजीकृत 'अर्हदभिषेक विधि' का निरूपण किया गया है। चौदहवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद में १६ वीं शती के उत्तरार्ध में प्रचलित 'अष्टोत्तरीशत स्नात्रविधि' का उल्लेख हुआ है इसके साथ ही १७ वीं शती में प्रचलित 'अष्टोत्तरशतस्नात्रविधि' भी दी गई है। इस स्नात्र में प्रमुखतः ग्रहस्थापनविधि, दिक्पालस्थापनविधि, बलिक्षेपविधि, शांतिकलश भरने की विधि की जाती है । पन्द्रहवाँ परिच्छेद- इसमें 'श्री शान्तिस्नात्रविधि' का वर्णन हुआ
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