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________________ 490 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य है । सोलहवाँ परिच्छेद- इसमें 'तीर्थयात्रा शान्तिकम् विधि' कही गई है अर्थात् तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान करने के दिन, प्रयाण करने के पूर्व जिबबिंब की स्नात्रविधि करना तीर्थयात्रा शान्तिकम् विधि है। सत्रहवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद में 'ग्रहशान्ति-विधान' की चर्चा हुई है। इसमें ग्रहशान्ति के सामान्य और विशेष दो प्रकार निर्दिष्ट हैं। अठारहवाँ परिच्छेद- इसमें 'जीर्णोद्धार विधि' का उल्लेख हुआ है। उन्नीसवाँ परिच्छेद- यह परिच्छेद 'देवीप्रतिष्ठा विधि' से सम्बन्धित है। बीसवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद में 'अधिवासना विधि' का प्रतिपादन हुआ है। इक्कीसवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद का नाम 'प्रकीर्णक प्रतिष्ठा विधि' है। इसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रतिष्ठा विधियों का उल्लेख हुआ है उनमें १. गृह प्रतिष्ठा विधि २. जिनपरिकर प्रतिष्ठा विधि ३. चतुर्निकायदेवमूर्ति प्रतिष्ठा विधि ४. ग्रह प्रतिष्ठा विधि ५. सिद्धमूर्ति प्रतिष्ठा विधि ६. मंत्रपट्ट प्रतिष्ठा विधि ७. साधुमूर्ति- स्तूप प्रतिष्ठा विधि ८. पितृमूर्ति प्रतिष्ठा विधि ६. तोरण प्रतिष्ठा विधि १०. जलाशय प्रतिष्ठा विधि आदि प्रमुख हैं। प्रस्तुत कल्याणकलिका के तृतीय खंड में चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवन ( चौवीशी), स्त्रोत, प्रतिष्ठापयोगी मंत्र आदि का संकलन किया गया है। इसके साथ ही १. अंजनशलाका सामग्री की सूची २. पादलिप्तप्रतिष्ठापद्धति के अनुसार प्रतिष्ठा सामग्री की सूची ३. गुणरत्नसूरिप्रतिष्ठाकल्पोक्त सामग्री की सूची ४ . गुणरत्ननीयाभिषे- कोपकरण सूची ५. बिम्बस्थापना प्रतिष्ठोप्रकरण सूची ६. शान्तिस्नात्र की सामग्री सूची ७ पूर्वतनप्रतिष्ठाकल्पोक्त सामग्रीकोश एवं ८. कल्याणक सूची का उल्लेख भी हुआ है। इस कृति में दिक्पालपूजायंत्र, दिक्पालस्थापनायंत्र, ग्रहस्थापनयंत्र, ग्रहपूजायंत्र, तीन प्रकार के आसनयंत्र, ध्वजदंड, मर्कट्यामुत्कीर्य ३४ यन्त्र का भी संकलन हुआ है । तिजयपहुत्तस्तोत्र सम्बन्धी तीन यंत्र दिये गये हैं पहला यंत्र प्रचलित है। दूसरा यन्त्र नन्नसूरिकृत स्तव के आधार पर दिया है और तीसरा यन्त्र संस्कृत स्तोत्र के अनुसार वर्णित किया है। कल्याणकलिका के इस समग्र वर्णन से सिद्ध होता है कि ग्रन्थकार अनेक ग्रन्थों के गहन अभ्यासी थे। इसी कारण यह कृति विषय वस्तु एवं तुलनात्मक दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी बन गई है। प्राचीनतम पादलिप्तसूरिकृत प्रतिष्ठापद्धति और अर्वाचीन नव्यप्रतिष्ठापद्धति दोनों का यथावत् उल्लेखकर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उजागर करने का जो प्रयास किया गया है वह ग्रन्थ के मूल्य एवं महत्त्व को सहस्रगुणा बढ़ा देता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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