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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/649 इसके साथ ही नवाणुयात्रा में प्रतिदिन करने योग्य पाँच चैत्यवन्दन इक्कीस तथा एक सौ आठ खमासमण के दोहे, आवश्यक स्तवन, स्तुतियाँ आदि का भी वर्णन किया गया है। नवाणुं यात्रा करने का प्रयोजन भी बताया गया है। पच्चक्खाणसरुप (प्रत्याख्यानस्वरूप) इस ग्रन्थ के प्रणेता श्री यशोदेवसूरि है। इन्होंने यह कृति' जैन महाराष्ट्री के ३२६ पद्यों में निबद्ध की है। यह रचना वि.सं. ११८२ की है। इस कृति के प्रारम्भ में प्रत्याख्यान के पर्याय दिये गये हैं। इसमें अद्धा-प्रत्याख्यान का विस्तृत वर्णन है। इसके अन्तर्गत १. प्रत्याख्यान लेने की विधि २. प्रत्याख्यान की विशुद्धि ३. सूत्र की विचारणा ४. प्रत्याख्यान पारने की विधि ५. प्रत्याख्यान पालन और प्रत्याख्यान का फल ये छ: बातें अनुक्रम से उपस्थित की गई हैं। इस प्रकार इसमें छः द्वारों का वर्णन हुआ है। तीसरे द्वार में नमस्कारसहित पौरुषी, पुरिमार्थ, एकाशन, एकस्थान, आचाम्ल, उपवास, चरम, देशावगासिक, अभिग्रह और विकृति- इन दस प्रत्याख्यानों का अर्थ समझाया है। बीच-बीच में नमस्कारसहित प्रत्याख्यान के अन्य सूत्र भी दिये गये हैं। इनके अतिरिक्त दान एवं प्रत्याख्यान फल के विषय में दृष्टान्त भी आते हैं। इसकी ३२८ वी गाथा को पढ़ने से मालूम होता है कि प्रस्तुत कृति की रचना आवश्यक, पंचाशक और पंचवस्तुक के विवरण के आधार पर की गई है। टीका- इस पर ५५० पद्यों की एक अज्ञातकर्तृक वृत्ति है। पच्चक्खाणभास (प्रत्याख्यानभाष्य) इस कृति' के रचयिता श्री देवेन्द्रसूरि है। चैत्यवन्दनभाष्य और गुरुवन्दनभाष्य इन्हीं की रचनाएँ हैं। यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत के ४८ पद्यों में गुम्फित है। इसमें प्रत्याख्यान सम्बन्धी विधि-विधान कहे गये हैं यह बात इस कृ ति के नाम से भी स्पष्ट होती है। इस ग्रन्थ में प्रतिपादित प्रत्याख्यान विषयक नौ द्वारों का सामान्य वर्णन इस प्रकार है - प्रथम द्वार में अनागत, अतिक्रमण, सांकेतिक, अद्धा आदि दस प्रकार के प्रत्याख्यान बताये गये हैं। इसके साथ ही नवकारसी, पोरूषी, पुरिमड्ढ़ आयंबिल, 'चार सौ श्लोक -परिमाण यह कृति सारस्वतविभ्रम, दानषट्त्रिंशिका, विसेसणवई और बीस विशिकाओं के साथ ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था ने सन् १६२७ में प्रकाशित की २ यह कृति 'श्री जैन श्रेयस्कर मंडल- महेसाणा' ने वि.सं. २००६ में प्रकाशित की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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