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________________ 648 / विविध विषय सम्बन्धी साहित्य ४. धर्मदोष द्वार - इस चौथे द्वार में अनन्तानुबन्धी कषाय को धर्म के दोष रूप में स्वीकारा है। इस विषय में १६७ गाथाओं के द्वारा नन्दमणियार सेट की कथा वर्णित की है। ५. सद्धर्मदायक द्वार इस द्वार में धर्मप्रदान करने योग्य अर्थात् धर्म का बोध समझाने योग्य गुरु के दो प्रकार से छत्तीस गुण कहे गये हैं । यहाँ ध्यातव्य है कि धर्म का बोध देने वाले गुरु भी शास्त्रोक्त गुणों से योग्य होने चाहिए। सामान्य गुरु धर्म समझाने का अधिकारी नहीं हो सकता है। इस सम्बन्ध में ३६० पद्यों के द्वारा संप्रतिराजा का दृष्टान्त चर्चित किया है। ६. धर्मग्रहण द्वार इस द्वार में धर्मग्रहण करने योग्य जीव के इक्कीस गुण बताये गये हैं और निर्देश किया गया है कि जो जीव इन इक्कीस गुणों से युक्त हो उन्हें ही यथोचित धर्म का स्वरूप समझना चाहिए। इस सन्दर्भ में वंकचूल राजकुमार का कथानक विवेचित किया है जो २८७ पद्यों में गुम्फित है। ७. धर्मभेद द्वार- इस द्वार में धर्म के चार भेद बताये गये हैं १. शुद्धदान २. शुद्धशील ३. शुद्धतप और ४. शुद्धभाव । शुद्धदान के विषय में मूलदेवकथा ( ३०२ पद्य), शुद्धशील में सुभद्रकथा (१३४), शुद्धतप में विष्णुकुमारकथा (२३८), शुद्धभाव पर इलापुत्रकथा ( १०३) पद्यों में दी गई हैं। पुनः गृहस्थ और साधु की अपेक्षा से धर्म के दो भेद किये गये हैं। धर्म का मूल सम्यक्त्व को कहा है। इसमें सम्यक्त्व सहित बारह व्रत का स्वरूप भी निर्दिष्ट किया है। ८. सद्धर्मफल द्वार इस द्वार में धर्मफल की चर्चा करते हुए धर्म का फल 'विरति' कहा है तथा इस सम्बन्ध में अत्यन्त विस्तार के साथ जंबूस्वामी का कथानक प्रस्तुत किया गया है जो १४५० पद्यों में गुम्फित है । ' उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि यह कृति जितनी महत्त्वपूर्ण हैं। उसकी वृत्ति भी उतनी ही मूल्यवान है । विषयवस्तु का स्पष्टीकरण करने हेतु जो कथानक दिये गये हैं वे सचमुच अलभ्य है। धर्म मार्ग में प्रवेश करने वाले भव्यजीवों को इस ग्रन्थ का अवश्य पठन या श्रवण करना चाहिये, जिससे वे शुद्ध आराधना पूर्वक साधनामार्ग में आगे बढ़ सकें। नवाणुंयात्राविधि यह हिन्दी गद्य-पद्य में रचित है। इसका सम्पादन तपागच्छीय मुनि मानविजयजी ने किया है। इसमें सिद्धाचल तीर्थ की 'नवाणुयात्राविधि' कही गई है , यह ग्रन्थ वि.सं. २४५० में जोशंगभाई छोटालाल सुतरीया, लुणसावाडे-मोटीपोल, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है। २ यह कृति 'सोमचन्द डी. शाह पालीताणा' से प्रकाशित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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