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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/647 टीकाएँ - इस ग्रन्थ पर श्री शांतिसूरि की स्वोपज्ञवृत्ति है। इसके अतिरिक्त १४ वीं शती के प्रारंभ में श्रीदेवेन्द्रसूरि के द्वारा इस पर बृहद् टीका रची गई है। धर्मविधिप्रकरण यह ग्रन्थ चन्द्रकुलीय सर्वदेवसूरि के शिष्य श्रीप्रभसूरि प्रणीत है। इस ग्रन्थ पर श्री उदयसिंहसूरि ने टीका लिखी है। यह कृति प्राकृत की पद्यात्मक शैली में है। इसमें कुल पचास गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थ की टीका संस्कृत गद्य-पद्य में है। प्रस्तुत ग्रन्थ के नाम से यह सिद्ध हो जाता है कि इसमें धर्मविधि से सम्बन्धित चर्चा हुई है। ग्रन्थकार ने धर्म का स्वरूप, धर्म का विवेचन एवं धर्म करने की विधि का जो वर्णन प्रतिपादित किया है वह पढ़कर हृदय रोमांच हो उठता है। इस ग्रन्थ में 'धर्मविधि' के आठ द्वार कहे गये हैं। प्रारम्भ में एक गाथा मंगलाचरण रूप दी गई है। उसमें वर्द्धमानस्वामी को नमस्कार करके स्व और पर कल्याण के लिए संक्षेप में धर्मविधि ग्रन्थ लिखने की प्रतिज्ञा की गई है तथा इस रचना की अन्तिम पाँच गाथाएँ प्रशस्ति रूप में उल्लिखित हैं। इसमें ग्रन्थकार ने अपने मन्तव्य को कई प्रकार से अभिव्यक्त किया है साथ ही इसमें यह बताया है कि 'धर्मविधि' नामक यह ग्रन्थ अमृतकलश के समान है और संसार के दुखों को हरण करने वाला है। जो मध्यस्थ भावना वाले हैं, आगम के प्रति रुचि रखने वाले हैं, संवेग भाव से भावित हैं उन जीवों के लिए यह ग्रन्थ रचा गया है। जिस प्रकार कुशल वैद्य भी अपनी व्याधि का उपचार अन्य योग्य वैद्य से करवाता है उसी प्रकार भव्यजीव भी धर्मविधि को जानते हुए कर्म का क्षय करें। अन्त में कहा है कि जो भव्यजीव इस धर्मविधि को आचरण करते हैं वे शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं। यह कहकर ग्रन्थ को पूर्ण किया गया है।। इस ग्रन्थ के आठ द्वारों की विषयवस्तु इस प्रकार है - १. धर्मपरीक्षा द्वार - इस द्वार में धर्म करने वाले जीव की परीक्षा किस प्रकार करनी चाहिए, उसकी विधि कष-छेद और ताप के उदाहरण पूर्वक बतायी गई है साथ ही इस सम्बन्ध में प्रदेशी राजा का कथानक दिया गया है। २. धर्मलाभ द्वार - इसमें उल्लेख किया है कि मोहनीयकर्म का क्षयोपशम होने से धर्म का लाभ होता है। इसकी और भी चर्चा करते हुए ४०० पद्यों में उदयन का दृष्टान्त दिया गया है। ३. धर्मगुण द्वार - इस द्वार में सम्यक्त्व को धर्म का विशिष्ट गुण बताया है उसकी चर्चा करते हुए १७७ पद्यों में कामदेवश्रावक का दृष्टान्त विवेचित किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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