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________________ 646 / विविध विषय सम्बन्धी साहित्य मुख्यतः इस कृति में श्रावक और साधु संबंधी दो प्रकार के धर्मरत्न कहे गये हैं। इसमें लिखा है कि जो आत्मा इक्कीस प्रकार के गुणों से युक्त हो वह दोनों प्रकार के धर्मरत्न को प्राप्त कर सकता है अर्थात् देशविरति और सर्वविरति धर्म का पालन कर सकता है और वही आत्मा सदा धर्मरत्न व्रत- नियम-तप आदि का पालन करने के योग्य होती है। है। इस ग्रन्थ में प्रमुख रूप से तीन वाचना ( विषयों) पर विवेचन हुआ प्रथम वाचना में सर्वधर्म स्थान की साधारण भूमिका रूप इक्कीस गुणों का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही श्रावक शब्द का अर्थ, धर्म क्या?, धर्म का अधिकारी कौन ? इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इस वाचना के अन्त में कहा है कि जिस प्रकार चित्रकारी करने के पूर्व चित्रकार प्रथम भूमिका शुद्ध करता है उसी प्रकार धर्मरत्न के अधिकारी बनने के लिए एवं मनोभूमिका शुद्ध करने के लिए इक्कीस गुणों को प्राप्त करना चाहिए। द्वितीय वाचना में भाव श्रावक का लक्षण बतलाया गया है। इसमें भावश्रावक के छः लिंग कहे हैं। पहला लिंग कृतव्रतकर्मनामक इसके चार प्रकार का है १. व्रत का श्रवण करना, २ . व्रत को जानना, ३ . व्रत को ग्रहण करना और ४. व्रत का पालन करना। दूसरा लिंग शीलव्रतादि रूप छः प्रकार का बताया गया है। तीसरा लिंग पाँच प्रकार का कहा गया है- १. स्वाध्याय २. करण ३. विनय ४. अभिनिवेश और ५. रुचि । चौथा लिंग ऋजुव्यवहार है इसके चार भेद कहे गये हैं। पाँचवा लक्षण गुरुशुश्रुषा है और छट्ठा लक्षण प्रवचनकुशलता है। इस वाचना में भाव श्रावक के अन्य सत्तर लक्षण भी निर्दिष्ट किये गये हैं। तृतीय वाचना में भाव साधु के लक्षण और उसका स्वरूप बताया गया है। इसमें भावसाधु के सात लक्षण कहे हैं और कहा है जो समग्र क्रिया में मार्गानुसारी हो, धर्म में उत्कृष्ट श्रद्धा रखने वाला हो, प्रज्ञापनीय हो, क्रिया - विधि के अनुपालन में अप्रमत्त हो, शक्य अनुष्ठान को आरंभ करने वाला हो, गुणानुरागी हो और गुरु आज्ञा की आराधना में रत हो वह भाव साधु है। इस वाचना के अन्त में धर्मरत्न का अनंतर और पंरपर फल बताया गया है। इस ग्रन्थ की तीनों वाचनाओं में पृथक-पृथक विषयों की पुष्टि हेतु अट्ठाईस कथाएँ भी दी गई हैं। संक्षेपतः इस कृति के वर्णन से ज्ञात होता है कि इसमें धर्ममार्ग, श्रावकधर्म एवं साधुधर्म की भूमिका में प्रवेश करने की एवं उस भूमिका में स्थिर रहने की विधि का सस्वरूप और सोदाहरण विवेचन हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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