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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/645
वस्त्र एवं पात्र की शुद्धि और उनके गुणदोष का प्रतिपादन, ८. आहार लाने के बाद की विधि, ६. आहार करने की विधि, १०. आहार करने के बाद की विधि, ११. स्थंडिल भूमि की शुद्धि और स्थंडिल जाने की विधि, १२. सायंकालीन प्रतिलेखना विधि, १३. सूर्यास्त के पूर्व की विधि (कर्त्तव्य) १४. श्रमण की प्रतिक्रमण विधि एवं प्रतिक्रमण के सूत्रार्थ, १५. प्रतिक्रमण कर लेने के बाद की विधि, १६. उपस्थापना विधि, १७. चरणसित्तरी, करणसित्तरी, महाव्रत, पंचाचार, गच्छवास आदि का स्वरूप, १८. विहार का स्वरूप, उसका महत्त्व, उसके लाभ एवं विधि, १६. दस प्रकार की प्रायश्चित्त विधि, २०. गणि आदि पद प्रदान विधि, २१. संलेखना का स्वरूप, और संलेखना ग्रहण विधि, २२. महापरिष्ठापनिका विधि, २३. स्थविरकल्पी एवं यथालन्दि का स्वरूप इत्यादि। चतुर्थ अधिकार - इस अन्तिम अधिकार में १५४ से १५६ तक की कारिकाएँ है। उन कारिकाओं में निरपेक्ष श्रमणधर्म का शास्त्रोक्त विवेचन किया गया है वह विषयवस्तु की दृष्टि से इस प्रकार है - १. जिनकल्पी साधु का स्वरूप और सामाचारी, २. परिहार- विशुद्धि कल्प एवं उसकी मर्यादा, ३. निरपेक्ष श्रमणधर्म का सामान्य वर्णन इत्यादि।
अन्त में २१ गाथाओं के द्वारा विस्तार से प्रशस्ति लिखी गई है टीका - प्रस्तुत ग्रन्थ की स्वोपज्ञवृत्ति गणि मानविजयजी द्वारा १४६२ श्लोक परिमाण में रची गई है। इस ग्रन्थकार की और भी श्रेष्ठ रचनायें प्राप्त होती हैं, उनमें १. नयविचार नामक ग्रन्थ का परिमाण २४० श्लोक हैं (सं. १७२८) २. नयतत्त्वप्रकरणविवरण (सं. १७३५), ३. सुमतिकुमति (जिनप्रतिमा) स्तवन (सं. १७२८), ४. गुरुतत्त्व प्रकाशचौबीस (सं. १७२५), ५. गजसुकुमाररास, ६. भगवतीरास रास (सं. १७४३) तथा ७. मद की सज्झाय इत्यादि कृतियाँ भक्ति भाव से परिपूर्ण एवं प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। धर्मरत्नप्रकरण
इस ग्रन्थ' के कर्ता श्री शांतिसूरि है। ये बृहद्गच्छीय सर्वदेवसूरि के प्रशिष्य एवं नेमिचन्द्रसूरि के शिष्य है। यह कृति प्राकृत भाषा के १४५ पद्यों में गुम्फित है। इसका रचनाकाल वि.सं. १२७१ है।
यह ग्रन्थ सामान्य जीवों के बोध के लिए रचा गया है। इसमें धर्म ग्रहण करने की विधि एवं धर्मपालन करने की विधि को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है।
' यह ग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका और गुजराती अनुवाद के साथ 'श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगर' से वि.सं. १९८२ में प्रकाशित हुआ है।
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