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74/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
कुन्तलारानी, धर्मदत्तश्रेष्ठी, सेठ की पुत्री, दो मित्र, हेलाक श्रेष्ठी, धनेश्वर. देव
और यश श्रेष्ठी, सोमनृप, रंकश्रेष्ठी, धन्यश्रेष्ठी, धनेश्वरश्रेष्ठी, धर्मदास, द्रमकमुनि, दण्डवीर्यनृप, लक्ष्मणासाध्वी और उदायन नृपति आदि। श्राद्धगुणविवरण
इस कृति के रचयिता तपागच्छीय सोमसुन्दरसूरि के शिष्य जिनमण्डनगणि' है। यह संस्कृत के २४४ श्लोकों में निबद्ध है। इसकी रचना वि. सं. १४६८ में हुई है। इस कृति का अपरनाम 'श्राद्धगुणश्रेणिसंग्रह' है। जैसा कि इस कृति नाम से सूचित होता है कि इसमें श्रावक के गणों का विवरण उल्लिखित हैं। इसमें विधि-विधान संबंधी कोई चर्चा उपलब्ध नही होती है तथापि श्रावकाचार की भूमिका में प्रवेश करने के लिए और श्रावकधर्म की विधि का अनुपालन करने के लिए श्रावक को जिनगुणों से युक्त होना चाहिये उन पैंतीस गुणों का इसमें विवेचन हैं। इससे निश्चित होता है कि यह कृति अप्रगट रूप से ही सही, किन्तु श्रावकाचार की विधि का ही दिग्दर्शन करती है।
___इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में भगवान महावीर को नमस्कार करके शुद्ध श्रावकधर्म को संक्षेप में कहने की प्रतिज्ञा की गई है। उसके बाद 'सावग' और 'श्रावक' शब्द की व्युत्पत्तियाँ दी गई हैं। पैंतीस गुणों को समझाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की कथाएँ दी गई हैं। बीच-बीच में संस्कृत एवं प्राकृत के अवतरण दिये गये हैं। अन्त में सात श्लोकों की प्रशस्ति है उसमें रचनास्थान' रचनाकाल और गुरूपरम्परा का निर्देश किया गया है। सामान्यतया श्रावक की भूमिका में प्रवेश पाने हेतु जो गुण अनिवार्य माने गये हैं वे पैंतीस गुण निम्न हैं
१. न्यायसम्पन्न वैभव होना, २. शिष्टाचार की प्रशंसा करना, ३. कुल एवं शील की समानतावाले अन्य गौत्र के व्यक्ति के साथ विवाह करना, ४. पापभीरुता, ५. प्रचलित देशाचार का पालन करना, ६. राजा आदि की निन्दा से दूर रहना, ७. योग्य निवास स्थान में द्वारवाला मकान बनाना, ८. सत्संग करना, ६. माता-पिता का पूजन (सेवा) करना, १०. उपद्रव वाले स्थान का त्याग करना, ११. निन्द्य प्रवृत्तियों से दूर करना, १२. अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार व्यय करना, १३. सम्पत्ति के अनुसार वेशभूषा धारण करना, १४. बुद्धि के आठ गुणों
' यह कृति गुजराती अनुवाद के साथ सन् १६५१ में 'श्री विजयनीतिसूरिजी जैन लायब्रेरी अहमदाबाद' से प्रकाशित हुई है। इसका एक संस्करण सन् १९१६ में 'जैन आत्मानंदसभा' से मुद्रित हो चुका है। इसका गुजराती अनुवाद प्रवर्तक कान्तिविजयजी के शिष्य श्री चतुरविजयजी ने किया है। २ अणहिलपत्तन नगर
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