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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/529
चतुर्विंशति-जिन-अद्भुतविद्या-निधान
यह कृति संस्कृत में है। इस कृति का संयोजन तपागच्छीय राजयशविजयगणि ने किया है। यह मन्त्र प्रधान रचना है। यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार चौबीस तीर्थंकरों सम्बन्धी विद्याओं को प्रस्तुत करता है। स्वरूपतः इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में 'गौतमस्वामी की महाविद्या' दी गई है। अनन्तर चौबीस तीर्थकरों की महाविद्या का उल्लेख किया गया है। प्रत्येक महाविद्या के साथ गौतम स्वामी सहित उन-उन तीर्थंकरों के सुन्दर चित्र भी दिये गये हैं।
प्रस्तुत कृति के अवलोकन से इन विद्याओं के प्रभाव को स्पष्टतः अनुभूत किया जा सकता है। ये महाविद्याएँ महाप्रभावशाली है। कई आचार्यों एवं मुनियों ने इन महाविद्याओं की विधिवत् आराधना की हैं उन्हें इस आराधना के अपूर्व परिणाम प्राप्त हुए हैं। ये महाविद्याएँ आत्मिक शांति के साथ-साथ शासन सेवा के कार्यों में भी विशिष्ट सहयोग प्रदान करती हैं ऐसा इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में उल्लिखित है। इन विद्याओं की साधना विधि को गीतार्थ गुरू या सुयोग्य गुरू के समक्ष स्वीकार करनी चाहिये। इस कृति में साधना विधि को लेकर कोई सूचन नहीं हुआ है तथापि ये महाविद्याएँ आराधना करने योग्य हैं अतः इस कृति का उल्लेख किया है। चिन्तामणिपाठ
इस कृति का रचनाकाल एवं इसके कर्ता का परिचय अज्ञात है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ के स्तोत्र एवं विविध प्रकार की पूजा विधियों का उल्लेख किया गया है। साथ ही इसमें यक्ष-यक्षिणियों, सोलह विद्यादेवियों एवं नवग्रहपूजाविधान आदि भी वर्णित है। यह रचना मन्त्र द्वारा पवित्र होने पर अथवा यन्त्र की शक्ति का विधान करती है। यह ग्रन्थ श्री सोहनलाल दैवोल के संग्रहालय में सुरक्षित है। चिन्तारणि
- इस कृति के संकलनकर्ता एवं रचनाकाल के विषय में कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार अनुमानतः १६ वीं शती में सागवाड़ा गद्दी के भट्टारक अथवा उनके किसी शिष्य ने इसका संग्रह किया है।
इसमें मंत्र, तंत्र एवं औषधि प्रयोग विधि में वागडी, मारवाड़ी तथा मालवी बोली के शब्दों का प्रयोग मिलता है। कहीं-कहीं शिव एवं हनुमान मंत्रों का भी समावेश है। यह कृति सोहनलाल दैवोत के निजी संग्रहालय में उपलब्ध है।
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