________________
कि ओघनिर्युक्ति आदि स्वतंत्र एवं बृहत्काय रचना को आवश्यक निर्युक्ति आदि का पूरक कैसे माना जा सकता है? इस विषय पर व्यवहार निर्युक्ति की प्रस्तावना' द्रष्टव्य है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 361
निर्युक्तिकार - यद्यपि नियुक्तिकार के रूप में आचार्य भद्रबाहु का नाम प्रसिद्ध है । निर्युक्तिकार के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। विंटरनित्स, हीरालाल कपाडिया आदि ने चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु को ही नियुक्तिकार के रूप में स्वीकृत किया है। मुनि पुण्यविजयजी ने अनेक प्रमाणों के आधार पर द्वितीय भद्रबाहु को निर्युक्तिकार के रूप में सिद्ध किया है। डॉ. सागरमल जैन ने इन दोनों से भिन्न आर्यभद्र को नियुक्तिकार माना है।
व्यवहार नियुक्ति - आचार्य भद्रबाहु की प्रतिज्ञा के अनुसार व्यवहार निर्युक्ति का क्रम आठवां है। यह कृति पद्य प्राकृत में है। इसमें कुल ५५१ गाथाएँ हैं।
ऐसा उल्लेख है कि व्यवहारसूत्र और बृहत्कल्पसूत्र एक दूसरे के पूरक है। जिस प्रकार बृहत्कल्प सूत्र में श्रमण जीवन की साधना के लिए आवश्यक विधि-विधान, दोष, अपवाद आदि का निर्देश है उसी प्रकार व्यवहारसूत्र में भी इन्हीं विषयों से संबंधित उल्लेख हैं। इस प्रकार ये दोनों नियुक्तियाँ परस्पर पूरक है । तथापि व्यवहार नियुक्ति में मुख्य रूप से व्यवहार, व्यवहारी एवं व्यवहर्त्तव्य का वर्णन हैं।
दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि व्यवहारनिर्युक्ति भाष्य मिश्रित अवस्था में ही मिलती है। आगे व्यवहार भाष्य का विस्तृत वर्णन अपेक्षित होने से यहाँ व्यवहार निर्युक्ति गत विधि-विधानों पर संक्षिप्त प्रकाश डाल रहे हैं। अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इसमें उल्लिखित किये गये प्रायः विधि-विधान व्यवहार भाष्य में भी उपलब्ध हैं व्यवहारनिर्युक्तिगत विधि-विधान का सामान्य वर्णन निम्न हैं
१. प्रायश्चित्त - दान विधि, २. विविध विभाग आलोचना विधि, ३. वाचना के लिए समागत अयोग्य शिष्य की वारणा - विधि, ४. श्रुतव्यवहारी को आलोचना कराने की विधि, ५. किस तीर्थंकर के काल में उत्कृष्टतः कितने दिनों का तप प्रायश्चित्त देने का विधान, ६ प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आलोचना करने का विधान, ७. पारिहारिक की निर्गमन विधि, ८. अवसन्न की प्रायश्चित्त विधि, ६. गण से अपक्रमण करने पर प्रायश्चित्त एवं यतनाविधि, १०. अनेक साधर्मिकों द्वारा अकृत्य स्थान सेवन की प्रायश्चित्त विधि, ११. गृहीभूत करने की आपवादिक
9
व्यवहारनिर्युक्ति, पृ. ३३, सं. आचार्य महाप्रज्ञ
२
मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ. ७१८-१६
३ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ३, पृ. ११५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org