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________________ 360 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य विधि - निषेध । ३. मोक - प्रतिमा का विधान | दसम उद्देशक- इस उद्देशक में दो विधान ही उपलब्ध होते हैं- 9. पाँच प्रकार के व्यवहार की विधि २. बालक-बालिकाओं को बड़ी दीक्षा देने की विधि निष्कर्षतः यह व्यवहारसूत्र शास्त्रीय और प्राचीन विधि-विधानों का भण्डार रूप है। इसमें वर्णित विधि-निषेध रूप विषयवस्तु अवलोकनीय और पठनीय है। इसमें जानने योग्य और भी बिन्दुओं का निरूपण किया गया है किन्तु वे आवश्यक न होने से चर्चित नहीं किये गये हैं। व्यवहार सूत्र के सम्पादन एवं लेखन का यह प्रयोजन सिद्ध होता है कि जिस प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य लाभ के लिए उदर शुद्धि आवश्यक है और उदर शुद्धि के लिए आहारशुद्धि अत्यावश्यक है इसी प्रकार आध्यात्मिक आरोग्य लाभ के लिए निश्चय शुद्धि आवश्यक है और निश्चय शुद्धि के लिए व्यवहार शुद्धि अनिवार्य है। जैसे सांसारिक जीवन में व्यवहार शुद्धि वाले ( रूपये-पैसों के लेने देने में प्रामाणिक ) के साथ ही लेन-देन का व्यवहार किया जाता है। वैसे ही आध्यात्मिक जीवन में भी व्यवहार शुद्ध साधक के साथ ही कृतिकर्मादि ( वन्दन - पूजनादि) व्यवहार किये जाते हैं। व्यवहारनिर्युक्ति जैन आगमों के व्याख्या ग्रन्थों में नियुक्ति सबसे प्राचीन पद्यबद्ध व्याख्या है । भाष्य साहित्य में व्याख्या के तीन प्रकार बताए गए हैं। उनमें नियुक्ति का दूसरा स्थान' है। प्रथम व्याख्या में शिष्य को केवल सूत्र का अर्थ बताया जाता है, दूसरी व्याख्या में नियुक्ति के साथ सूत्र की व्याख्या की जाती है तथा तीसरी व्याख्या में सूत्र की सर्वांगीण व्याख्या की जाती है। निर्युक्तियों की संख्या - आवश्यकनिर्युक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने १० नियुक्तियाँ लिखने की प्रतिज्ञा की है । उनका क्रम इस प्रकार है- १. आवश्यक, २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. आचारांग ५. सूत्रकृतांग, ६. दशाश्रुतस्कंध, ७. बृहत्कल्प, ८. व्यवहार, ६. सूर्यप्रज्ञप्ति १०. ऋषिभाषित। वर्तमान में इन दस नियुक्तियों में केवल आठ नियुक्तियाँ ही प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त पिंडनिर्युक्ति, ओघनिर्युक्ति, पंचकल्पनिर्युक्ति और निशीथ नियुक्ति आदि का भी स्वतंत्र अस्तित्व माना गया है। डा. घाटगे के अनुसार ये क्रमशः दशवैकालिकनियुक्ति, आवश्यकनिर्युक्ति, बृहत्कल्पनियुक्ति और आचारांगनिर्युक्ति की पूरक नियुक्तियाँ है । इस संदर्भ में विचारणीय प्रश्न यह है सुतत्थो खलु पदमो, बीओ निज्जुत्ति मीसओ भणिओ तइओ य निरवसेसो, एस विही होई अणुओगे Jain Education International विशेषावश्यक भाष्य. गा. ५६६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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