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________________ तृतीय उद्देशक- इसमें पाँच प्रकार के विधान वर्णित हैं- १. गण धारण करने अर्थात् आचार्य पद देने सम्बन्धी विधि - निषेध । २. उपाध्याय आदि पद देने के विधि - निषेध ३. अल्पपर्याय वाले को पद देने का विधान ४. अब्रह्मसेवी को पद देने के विधि - निषेध ५. संयम त्यागकर जाने वाले को पद देने के विधि - निषेध जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 359 चतुर्थ उद्देश इस उद्देशक में तीन विधान कहे गये हैं- 9. उपस्थापना का विधान २. अभिनिचारिका' में जाने के विधि - निषेध ३. रत्नाधिक को अग्रणी मानकर विचरने का विधान पंचम उद्देशक - इसमें पाँच विधानों का उल्लेख हैं - १. आचार - प्रकल्प - विस्मृत को पद देने का विधि-निषेध २. स्थविर के लिए आचार प्रकल्प के पुनरावर्त्तन करने का विधान ३. परस्पर आलोचना करने के विधि - निषेध । ४. परस्पर सेवा करने का विधि - निषेध ५. सर्प दंश चिकित्सा के विधि - निषेध | षष्टम उद्देशक यहाँ तीन विधान उल्लिखित है- १. स्वजन परजन गृह में गोचरी जाने का विधि - निषेध २. अगीतार्थों के रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त विधान ३. अकेले भिक्षु के रहने का विधि - निषेध सप्तम उद्देश इस उद्देशक में छह प्रकार के विधि - निषेधों का वर्णन किया गया है १. सम्बन्ध विच्छेद करने सम्बन्धी विधि - निषेध २. प्रव्रजित करने सम्बन्धी विधि-निषेध ३. कलह उपशमन सम्बन्धी विधि - निषेध ४. श्रमण के मृत शरीर को परठने की और उपकरणों को ग्रहण करने की विधि ५. आज्ञा ग्रहण करने की विधि ६. राज्य परिवर्तन में आज्ञा ग्रहण करने का विधान अष्टम उद्देशक- इसमें छह प्रकार की विधि - निरुपित हैं- १. शयन स्थान के ग्रहण की विधि २. शय्या - संस्तारक के लाने की विधि ३. एकाकी स्थविर के भण्डोपकरण और गोचरी जाने की विधि ४. शय्या - संस्तारक के लिए पुनः आज्ञा लेने का विधान ५. शय्या - संस्तारक ग्रहण करने की विधि ६. अतिरिक्त पात्र लेने का विधान नवम उद्देशक- इसमें विधि-निषेध रूप तीन विधान प्रतिपादित हैं- १. शय्यातर के मेहमान, नौकर एवं ज्ञातिजन के निमित्त से बने आहार के लेने का विधि - निषेध | २. शय्यातर की भागीदारी वाली विक्रय शालाओं से आहार लाने सम्बन्धी , अनिभिचारिकागमन- जहाँ आचार्य उपाध्याय मासकल्प ठहरे हों, शिष्यों को सूत्रार्थ की वाचना देते हों, वहाँ से ग्लान, असमर्थ एवं तप से कृश शरीर वाले साधु निकट ही किसी गोपालक बस्ती में दुग्धादि विकृति सेवन के लिए जाएँ तो उनकी चर्या को यहाँ 'अभिनिचारिका गमन' कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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