SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 358 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य ४. धारणा व्यवहार किसी गीतार्थ श्रमण के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जिस अतिचार का जो प्रायश्चित्त दिया जाता रहा है उसकी धारणा करके उसी प्रकार के अतिचार का सेवन करने वाले को धारणानुसार जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह धारणा व्यवहार है। - ५. जीत व्यवहार- गीतार्थ द्वारा प्रवर्त्तित शुद्ध व्यवहार जीत व्यवहार है। श्रुतोक्त प्रायश्चित्त से हीन या अधिक किन्तु परम्परा से आचरित प्रायश्चित्त देना जीत व्यवहार है। सूत्रोक्त कारणों के अतिरिक्त अन्य कारण उपस्थित होने पर जो अतिचार लगे हैं उनका प्रवर्तित प्रायश्चित्त अनेक गीतार्थों द्वारा आचरित हो तो वह भी जीतव्यवहार है। अनेक गीतार्थों द्वारा निर्धारित एवं सर्वसम्मत विधि - निषेध भी जीत व्यवहार है। व्यवहारी, व्यवहारज्ञ, व्यवहर्त्ता ये समानार्थक हैं। जो प्रियधर्मी हो, दृढधर्मी हो, पापभीरु हो और सूत्रार्थ का ज्ञाता हो वह व्यवहारी होता है। व्यवहार करने योग्य निर्ग्रन्थ व्यवहर्त्तव्य हैं। ये अनेक प्रकार के कहे गये हैं। । मूलतः निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के होते हैं १. पुलाक, २. बकुश, ३. कुशील, ४. निर्ग्रन्थ और ५. स्नातक । इन पाँच निर्ग्रन्थों के अनेक भेद-प्रभेद हैं। ये सब व्यवहार्य है । व्यवहार सूत्र के ये तीन विषय प्रमुख माने गये हैं किन्तु इसका अध्ययन करने से और भी विषय प्रमुख लगते हैं जैसे व्यवहार के आधार पर १. गुरु, २. लघुक और ३. लघुस्वक प्रायश्चित्त देना व्यवहार है। इसमें प्रायश्चित्त की उपादेयता, प्रायश्चित्त के भेद-प्रभेद, दस प्रकार के प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्त का हेतु, प्रतिसेवना के प्रकार, व्यवहार की शुद्धि, आलोचना और आलोचक का स्वरूप आदि की चर्चा है। यहाँ प्रत्येक विषयों का विस्तृत वर्णन करना अपेक्षित नहीं लग रहा है। अतः हम केवल व्यवहारसूत्र में प्रतिपादित विधि-विधान का नाम - निर्देश कर रहे हैं इसके १० उद्देशकों के आधार पर विधि विधानों की विषय वस्तु निम्नलिखित है प्रथम उद्देशक - इस उद्देशक में मुख्यतः कपटरहित तथा कपटसहित आलोचक को प्रायश्चित्त देने की विधि वर्णित है। -- द्वितीय उद्देशक इस उद्देशक में पाँच विधान उपलब्ध होते हैं - १. विचरने वाले साधर्मिक के परिहार तप का विधान । २. अनवस्थाप्य और पारांचिक भिक्षु की उपस्थापना विधि ३. अकृत्यसेवन का आक्षेप और उसके निर्णय की विधि ४. एक पक्षीय भिक्षु को पद देने का विधान ५. पारिहारिक और अपारिहारिकों के परस्पर आहार सम्बन्धी व्यवहार का विधान । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy