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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/17 वाली कर्त्तव्य रूप विधियों के संग्राहक हैं। जिनप्रभसूरि का 'सरिमंत्रबहतकल्पविवरण' भी है जिसमें सरिपद की साधना विधि का विस्तृत वर्णन है। इसी क्रम में आगे देखें तो विधिप्रपागत विषयों की ही समरूपता को लिये हुए वर्धमानसूरिकृत (१६वीं शती) 'आचारदिनकर' समुपलब्ध होता हैं। इसमें भी ४० प्रकार के विधि-विधान उल्लिखित हैं। विषयानुक्रम की दृष्टि से कहें तो विधिमार्गप्रपा का अनुकरण किया गया ही प्रतीत होता है चूंकि इसमें भी गृहस्थ सम्बन्धी, साधु सम्बन्धी एवं गृहस्थ-साधु दोनों से सम्बन्धित विधि-विधान विधिप्रपा के क्रम से वर्णित किये गये हैं। विषयवस्तु की अपेक्षा से देखें तो आचारदिनकर में कुछ विधान जैसे सोलह संस्कार विधान, क्षुल्लकत्वदीक्षाविधान, शांतिककर्म, पौष्टिककर्म आदि विधान विधिमार्गप्रपा से भिन्न हैं तथा इसमें विधि-विधानों का विस्तार भी अपेक्षाकृत अधिक है। इसी तरह जैन कर्मकाण्डों (विधि-विधानों) का विवेचन करने वाले अन्य ग्रन्थों में जिनवल्लभगणि (१०-११ वीं शती) का ‘पिंडविशुद्धिप्रकरण'-जिसमें मुख्यतया जैन साधुओं की आहारविधि प्रतिपादित है, हरिभूषणगणि (वि.सं.१४८०) का 'श्राद्धविधिविनिश्चय', भावदेवसूरि, (१५वीं शती) की ‘यतिसामाचारी', तरूणप्रभाचार्य (१५ वीं शती) की 'षड़ावश्यकबालावबोधवृत्ति', रत्नशेखरसूरि (१६वीं शती) का 'श्राद्धविधिप्रकरण', जयचन्द्रसूरि (१६वीं शती) का 'प्रतिक्रमणहेतुगर्भः', देवेन्द्रसूरि (१५ वीं शती) के 'श्राद्धजीतकल्प', तथा 'श्राद्धदिनकृत्य', देवसूरि (१२-१३ वीं शती) की ‘यतिदिनचर्या', प्राचीनआचार्य विरचित 'सामाचारीप्रकरण' एवं 'श्राद्धदिनकृत्य' सिंहतिलकसूरि (१४वीं शती) का 'मन्त्रराजरहस्यम्, महोपाध्याय समयसुन्दर (१७वीं शती) का 'समाचारीशतक', नेमिचन्द्रसूरि (१६वीं शती) का 'प्रवचनसारोद्वार', क्षमाकल्याणोपाध्याय (१६वीं शती) का 'साधुविधिप्रकाश', उपाध्याय मानविजय का 'धर्मसंग्रह', जीवदेवसूरि रचित (११-१२ वीं शती) जिनस्नात्रविधि, वादिवेताल शान्तिसूरिकृत (११-१२ वीं शती) अर्हदभिषेकविधि आदि भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनके अतिरिक्त प्रतिष्ठाकल्प के नाम से अनेक लेखकों की कृतियाँ हैं; जैसे भद्रबाहुस्वामी का 'प्रतिष्ठाकल्प', श्यामाचार्य का 'प्रतिष्ठाकल्प', हरिभद्रसूरि का 'प्रतिष्ठाकल्प', हेमचन्द्रसूरि रचित 'प्रतिष्ठाकल्प', गुणरत्नाकरसूरि का 'प्रतिष्ठाकल्प' इन सभी प्रतिष्ठाकल्पों का उल्लेख सकलचन्द्रगणिकृत 'प्रतिष्ठाकल्प' के अन्त में है। इन सभी में सकलचन्द्रगणि (१७वीं शती) का प्रतिष्ठाकल्प अपेक्षाकृत अधिक विस्तार वाला प्रतीत होता है। इसके साथ ही मंदिरनिर्माणविधि, भूमिखननविधि आदि से सम्बन्धित ठक्कर फेरु (१४वीं शती) का वास्तुसारप्रकरण, कल्याणविजय- गणि (१७वीं शती) की कल्याणकलिका, रत्नशेखरसूरि (१५वीं शती) की जलयात्रादि विधि आदि। इनके अतिरिक्त जैन विधि-विधानों के और भी अनेक ग्रन्थ रचित एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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