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18/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
संग्रहीत रूप में उपलब्ध होते हैं जो विषयवस्तु एवं प्रायोगिक दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं जैसे - आवश्यकविधिसंग्रह, सप्तोपधानविधि, श्री सूरिमंत्रपटालेखन विधि, उपधानविधि, पौषधविधि, तपरत्नाकर ( चाँदमल सीपानी ) तपोरत्नमहोदधि ( कल्याणसूरि जी), जैनतपावलि (यशोविजयजी), तपसुधानिधि (श्री हीरालाल दूगड़ ), तप रत्नाकर (रत्नाकरविजयजी), तपदीपक प्रकाश ( महानंद विजयजी), तपोविधि संग्रह, तपाराधना (जयानंद विजयजी), तपसौरभ, शान्तिस्नात्रादिविधिसमुच्चय (भा. १-३) ( कल्याणसागरसूरि जी), प्रतिक्रमणविधिसंग्रह (कल्याणविजयगणि), विधिसंग्रह (चमरेन्द्रसागर जी), बृहद्योगविधि ( देवेन्द्रसागरसूरि जी), सूरिमन्त्रकल्पसमुच्चय (मुनि जम्बुविजय जी ), सचित्रपौषधविधि (कान्तिसागरसूरि जी ) इत्यादि ।
दिगम्बर परम्परा में धार्मिक क्रियाकाण्डों को लेकर वट्टकेर (छठी शती) का 'मूलाचार', शिवार्य (छठी शती) की 'भगवती आराधना', वसुनन्दि (वि. सं. ११५० ) का 'प्रतिष्ठासारसंग्रह आशाधर ( १३वीं शती) के 'अणगारधर्मामृत', 'सागारधर्मामृत' ‘जिनयज्ञकल्प' (वि.सं. १२८५) एवं 'महाभिषेककल्प' आदि, सुमतिसागर का ‘दंसलाक्षणिकव्रतोद्यापन', सिंहनन्दी का 'व्रततिथिनिर्णय', जयसागर का ‘रविव्रतोद्यापन’, ब्रह्मजिनदास (१५वीं शती) का 'जम्बूद्वीपपूजन', 'अनन्तव्रत - पूजन', ‘मेघमालोद्यापनपूजन’, विश्वसेन का ' षण्नवतिक्षेत्रपाल पूजन, ( १६वीं शती), विद्याभूषण ( १७वीं शती) के 'ऋषिमण्डलपूजन', 'बृहत्कलिकुण्डपूजन' और सिद्धचक्रपूजन' बुधवीरू ( १६वीं शती) का 'धर्मचक्रपूजन' एवं पंचपरमेष्ठी पूजन' षोडशकारण पूजन' एवं 'गणधरवलयपूजन', श्री भूषण का ' षोडशसागार व्रतोद्यापन', नागनन्दि का ‘प्रतिष्ठाकल्प' आ. मल्लिषेण ( १२वीं शती) का 'भैरव पद्मावतीकल्प, ज्वालामालिनीकल्प, सरस्वतीकल्प, इन्द्रनन्दि का विद्यानुवाद, मल्लिसेन ( १२वीं शती) का विद्यानुशासन आदि प्रमुख कहे जा सकते हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से ध्वनित होता है कि जैन परम्परा से सम्बन्धित विधि-विधान विषयक अनेक ग्रन्थ रचे गए हैं। साथ ही जैन अवधारणा में कौन-कौन से विधि-विधान किस-किस स्वरूप में परम्पराओं से आकर जुड़े ? उनमें किस क्रम से परिवर्तन आए ? परिवर्तन के मुख्य आधार क्या रहे ? प्राथमिक स्रोत के रूप में उनका स्वरूप क्या था? इत्यादि शोधपरक बिन्दू भी उपलब्ध साहित्य से सहजतया स्पष्ट हो जाते हैं।
जैन परम्परा के विविध विधि-विधान
जैन परम्परा के अपने मौलिक विधि-विधानों का इतिहास भी जानने योग्य है जैन धर्म में गृहस्थ एवं साधु दोनों से सम्बन्धित कई विधि-विधान मूलरूप से देखने को मिलते हैं उनकी संक्षिप्त चर्चा पूर्व में कर चुके हैं। यहाँ आराधकों की
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