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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/103
विषय-शब्द, रूप, रस, गन्ध, एवं स्पर्श में आसक्त नहीं बनना चाहिए।
'सामाचारी' नामक छब्बीसवें अध्ययन में दस प्रकार की सामाचारी' का वर्णन किया गया है जो साधु जीवन की प्रमुख आचारविधि रूप हैं। इन सामाचारियों का पालन प्रत्येक संयमी आत्माओं के लिए अनिवार्य माना गया है। जैसे मुनि कार्यवश कहीं बाहर जाये तो गुरुजनों को सूचना देकर जायें, पुनः वापिस लौटकर आयें तब अपने आगमन की सूचना दें। अपने हर कार्य के लिए गुरु से अनुमति लें। गुरु या अन्य संघीय साधुओं की आहार आदि से सेवा करें। गुरु के आने पर खड़े होकर सम्मान करें तथा ज्ञानीजन या तपस्वीजन से ज्ञान एवं तप की शिक्षा लेने को सदैव तत्पर रहें इत्यादि।
इसके साथ ही मुनि की दिनचर्या का समय के क्रम से विवेचन किया गया है। इसमें निर्देश है कि मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षाचर्या एवं चौथे में पुनः स्वाध्याय करें। मुनि रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में निद्रा और चौथे में पुनः स्वाध्याय करें। अन्त में प्रहर का निर्धारण नक्षत्र के माध्यम से किस प्रकार होता है इसकी विधि तथा मुनि की प्रतिलेखन विधि का भी वर्णन किया गया है। इस प्रकार यह अध्ययन साधक की साधना का सम्यक् निरूपण करता है साध ही कालमान की विधि को भी प्रस्तुत करता है।
'प्रवचनमाता' नामक २४ वें अध्ययन में 'अष्ट प्रवचनमाता' का निरूपण है। अष्टप्रवचनमाता का परिपालन साधुचर्या का प्राथमिक अंग माना गया है। इस अध्ययन में अष्टप्रवचनमाता का स्वरूप एवं उसके परिपालन की सम्यक विधि कही गई है। 'चरणविधि' नामक ३१ वें अध्ययन में श्रमणों की 'चारित्रविधि' का वर्णन है अतः अध्ययन का नाम चरणविधि रखा गया है। इस अध्ययन में एक से लेकर तैंतीस संख्या तक अनेक विषयों का वर्णन हुआ है। उनमें साधु के लिए करणीय-अकरणीय कृत्यों का निरूपण है।
'अणगारमार्गगति' नामक ३५ वें अध्ययन में मुख्यतः शान्त या अनाकुल जीवन शैली एवं समाधिमरण की विधि का विवेचन किया गया है । इसके साथ ही अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण आचार विधियों की भी प्ररूपणा हुई है। उक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि यह सूत्र विभिन्न विषयों का प्रतिपादक है इसमें जातिवाद, दासप्रथा, यज्ञ एवं तीर्थस्थान आदि का भी वर्णन है। तदुपरान्त यत्किंचित् विधि विधान भी निरूपित
'जैन परम्परा में मुनि की आचारसंहिता को सामाचारी कहा गया है। यह आचार दो प्रकार का है - व्रतात्मक एवं व्यवहारात्मक। पंचमहाव्रत रुप आचार व्रतात्मक सामाचारी है तथा परस्परानुसार रुप आचार व्यवहारात्मक सामाचारी है।
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