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________________ 402/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य योग का अर्थयोग शब्द 'युज' धातु और 'घञ्' प्रत्यय से बना है। युज् धातु के दो अर्थ हैं एक का अर्थ है - जोड़ना, संयोजित करना, और दूसरे का अर्थ है - समाधि, मनः स्थिरता। आचार्य हरिभद्र के मतानुसार योग का अर्थ है - धर्मव्यापार, धर्मप्रवृत्ति, धर्म क्रिया। उन्होंने योगबिन्दु' में कहा है कि आध्यात्मिक भावना और समता का विकास करने वाला, मनोविकारों का क्षय करने वाला तथा मन, वचन और कर्म को संयत रखने वाला धर्म-व्यापार ही श्रेष्ठ योग है। जैनागम में मन, वचन और कायिक प्रवृत्ति को योग कहा है। समग्र भारतीय चिन्तन की दृष्टि से योग समस्त आत्मशक्तियों का पूर्ण विकास करने वाली एवं सभी आत्म-गुणों को अनावृत्त करने वाली आत्माभिमुखी साधना है। वस्तुतः योग एक आध्यात्मिक साधना है। आत्मविकास की विशुद्ध प्रक्रिया है। जैन दर्शन में कहा गया है कि बिना चारित्र के ज्ञान में पूर्णता नहीं आती है उसी प्रकार साधना के लिए ज्ञान आवश्यक है और ज्ञान के विकास के लिए साधना। ज्ञान और क्रिया की संयुक्त साधना से ही साध्य की सिद्धि होती है। यह सत्य है विश्व की किसी भी वस्तु को पूर्ण बनाने के लिए दो बातों की आवश्यकता पड़ती है - एक पदार्थ विषयक ज्ञान और दूसरी क्रिया। ज्ञान और क्रिया के सुमेल के बिना दुनिया का कोई भी कार्य पूरा नहीं किया जा सकता, भले ही वह लौकिक कार्य हो या पारलौकिक, सांसारिक हो या आध्यात्मिक। योग साधना भी एक क्रिया है। अतः स्पष्ट है कि योग साधना एक प्रकार से आध्यात्मिक विधि-विधान का दूसरा रूप है। जैनागमों में योग - जैन धर्म निवृत्ति-प्रधान है। चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर ने साढे बारह वर्ष तक मौन रहकर घोर तप एवं ध्यान के द्वारा योग-साधनामय जीवन बिताया था। उनके शिष्य-शिष्या परिवार में चौदह हजार साधु और छत्तीस हजार साध्वियाँ थीं, जिन्होंने योगसाधना में प्रवृत्त होकर साधुत्व को स्वीकार किया था। जैन परम्परा के मूल ग्रन्थ आगम हैं। उनमें वर्णित साध्वाचार का अध्ययन करने से यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि पाँच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, बारह तप, ध्यान, स्वाध्याय आदि- जो योग के मुख्य अंग हैं उनको साधु जीवन का और श्रमण-साधना का प्राण माना है। वस्तुतः आचार-साधना श्रमण-साधना का मूल है, प्राण है, जीवन है। 'युपी योगे, गण ७ युजिं च समाधौ, गण ४ २ अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः। मोक्षेण योजनाद्योग, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। - योगबिन्दु ३१ * (क) ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः (ख) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । - तत्त्वार्थसूत्र १,१ * आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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