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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 231
की चर्चा की गयी है।
१४. शीलांगविधानविधि पंचाशक इस पंचाशक में शीलांगों का निरूपण किया गया है। श्रमणों के शील सम्बन्धी विविध पहलुओं को शीलांग कहा गया है। इनकी संख्या अठारह हजार हैं। ये सभी शीलांग अखण्ड भाव चारित्र वाले श्रमणों में पाये जाते हैं। तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इन्द्रिय, दस काय और दस श्रमणधर्म इनके पारस्परिक गुणन से अठारह हजार शीलांग होते हैं यथा
३X३X४X५X१०X१०- १८००० ।
इस पंचाशक में यह भी बताया गया है कि शीलांगों की अठारह हजार की यह संख्या अखण्ड भावचारित्र सम्पन्न मुनि में कभी कम नहीं होती है, क्योंकि प्रतिक्रमण सूत्र में इन अठारह हजार शीलांगों को धारण करने वाले मुनियों को ही वन्दनीय कहा गया है। दूसरी बात यह कही गई है कि अठारह हजार में से कोई एक भी संख्या होने पर सर्वविरति नहीं होती है और सर्वविरति के बिना मुनि नहीं होता है तथा सच्चे मुनित्व भाव के बिना मोक्ष में गमन नहीं होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण शीलांगों से युक्त साधु ही सांसारिक दुःखों का अन्त करते हैं, अन्य द्रव्यलिंगी साधु नहीं ।
१५. आलोचनाविधि पंचाशक यदि किसी कारणवश शीलांगों का अतिक्रमण हो जाता है तो उसकी शुद्धि के लिए आलोचना करनी पड़ती है। अतः पन्द्रहवें पंचाशक में आलोचनाविधि का वर्णन किया गया है। अपने दुष्कृत्यों को गुरु के समक्ष शुद्धभाव से कुछ भी छिपाए बिना बताना आलोचना है। इस पंचाशक के अन्तर्गत आलोचना के योग्य व्यक्ति, आलोचना देने योग्य गुरु, आलोचना क्रम, मनोभावों का प्रकाशन और द्रव्यादि शुद्धि ये पाँच द्वार कहे गये हैं। इसके साथ ही आलोचना का काल, आलोचना नहीं करने से होने वाले दुष्ट परिणाम, निशल्य भाव से आलोचना करने का फल इत्यादि का भी वर्णन किया गया है।
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१६. प्रायश्चित्तविधि पंचाशक इस सोलहवें पंचाशक में प्रायश्चित्त विधि का विवेचन किया गया है। सामान्यतया जिससे प्रायः चित्त शुद्धि होती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। इसमें प्रायश्चित्त के आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक इन दस प्रकारों को विस्तारपूर्वक समझाया गया है। आगे के सात प्रायश्चित्तों को व्रण दृष्टान्त से बताया गया है। उसके बाद आगम के अनुसार आगम श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत ऐसे पाँच प्रकार के प्रायश्चित्त देने की विधि बतलायी गयी है। इन पाँच प्रकार के व्यवहारों के आधार पर अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गए हैं।
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