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232/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
१७. कल्पविधि पंचाशक - इस पंचाशक में कल्पविधि का वर्णन हैं। इसमें कल्प के दो प्रकार कहे हैं १. स्थित कल्प और २. अस्थित कल्प। स्थितकल्प वे हैं जो सदा आचरणीय होते हैं। अस्थितकल्प किसी कारण से आचरणीय होते हैं और किसी कारण से आचरणीय नहीं होते हैं। सामान्यतया आचेलक्य आदि के भेद से कल्प के दस प्रकार होते हैं - १. आचेलक्य २. औद्देशिक ३. शय्यातरपिण्ड ४. राजपिण्ड ५. कृतिकर्म ६. व्रत (महाव्रत) ७. ज्येष्ठ ८. प्रतिक्रमण ६. मासकल्प और १०. पर्युषणाकल्प
ये दस कल्प प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासनकाल के साधुओं के लिए स्थितकल्प रूप होते हैं और मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के लिए इनमें छ: कल्प अस्थित होते हैं और चारकल्प स्थित होते हैं। इस पंचाशक में इन दस प्रकार के कल्प का स्वरूप सम्यक् रूप से कहा गया है। १८. भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि पंचाशक - इस अठारहवें पंचाशक में भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि का वर्णन हुआ है। विशिष्ट क्रिया वाले साधु का प्रशस्त अध्यवसाय रूपी शरीर ही प्रतिमा कहलाता है। इसमें आवश्यकनियुक्ति के अनुसार मासिकी, द्विमासिकी, त्रैमासिकी, चतुर्मासिकी, पंचमासिकी, षष्टमासिकी, सप्तमासिकी- ये एक महिने से प्रारंभ होकर क्रमशः दो, तीन, चार, पाँच, छः और सात महीने तक पालन करने योग्य सात प्रतिमाएँ कही गई हैं। आठवीं, नौवीं और दसवी प्रतिमा सप्तदिवसीय तथा ग्यारहवीं और बारहवीं प्रतिमा एक दिवस रात्रि की होती है इस प्रकार कुल बारह प्रतिमाओं का सुन्दर निरूपण किया गया है। १६. तपविधि पंचाशक- यह पंचाशक तप विधि का विवेचन करने वाला है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार जिससे कषायों का निरोध हो, ब्रह्मचर्य का पालन हो, जिनेन्द्रदेव की पूजा हो तथा भोजन का त्याग हो, वे सभी तप कहलाते हैं। इसमें बारह प्रकार के बाह्यतप एवं बारह प्रकार के आभ्यन्तर तप का विवेचन किया गया है। इन बारह प्रकार के तपों के अतिरिक्त निम्न तपों का स्वरूप भी कहा गया है -
१. प्रकीर्णकतप- तीर्थंकरों द्वारा उनकी दीक्षा, कैवल्य-प्राप्ति और निर्वाण प्राप्ति के समय जो तप किये गये थे, तदनुसार जो तप किये जाते हैं वे प्रकीर्णक तप कहलाते हैं २. चान्द्रायण तप ३. रोहिणी आदि विविध तप ४. निरुजशिरवा तप ५. परमभूषण तप ६. ज्ञान-दर्शन-चारित्र तप ७. सौभाग्यकल्पवृक्ष तप इत्यादि।
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