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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/487 प्रतिष्ठा विषयक विधि-विधान ही वर्णित किये गये हैं तब इसका नाम प्रतिष्ठाकल्पादि होना चाहिए? इसका समाधान करते हुए इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में लिखा गया है कि प्रतिष्ठादि विधान कल्याण करने वाले हैं, कल्याण के समूहरूप हैं इसलिए इसका नाम फलसूचक 'कल्याणकलिका' रखा है। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना अत्यन्त विस्तार के साथ दी गई है। इसमें प्राचीन और अर्वाचीन प्रतिष्ठा की तुलना, प्रतिष्ठा विधि की सामग्री का कालक्रम पूर्वक ऐतिहासिक स्वरूप, वर्तमान में उपलब्ध प्रतिष्ठाकल्प, प्रस्तुत प्रतिष्ठाकल्प (कल्याणकलिका) का मूलाधार, प्रतिष्ठा विधान के मुख्यपात्र आचार्य, स्नात्रकार, पौंखना करने वाली नारियाँ आदि, आधुनिक प्रतिष्ठाविधानों के आधारग्रन्थ इत्यादि अनेक उपयोगी विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ ही प्रतिष्ठा सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी भी दी गई हैं तथा अन्य और विषयों का चिन्तन भी किया गया है। उक्त वर्णन से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि जहाँ ग्रन्थ की प्रस्तावना ही अलभ्य सामग्री से संयुक्त हो वहाँ ग्रन्थ की विषयवस्तु कितनी विशिष्ट और व्यवस्थित हो सकती है? सचमुच यह ग्रन्थ इस कोटि के विधि-विधान सम्बन्धी कृ तियों में अपना अद्वितीय स्थान रखता है। अब कल्याणकलिका (भा.२-३) की विषयवस्तु का विवरण संक्षेप में निम्नलिखित है - पहला परिच्छेद- इस परिच्छेद में एक पद्य है और इसमें भूमिग्रहण विधि और खनन (खात) विधि का उल्लेख हुआ है। दूसरा परिच्छेद- इसमें वास्तुपूजा की संक्षिप्त विधि दी गई है। तीसरा परिच्छेद- इस परिच्छेद में प्रतिष्ठा कल्पोक्त कूर्मप्रतिष्ठा विधि का वर्णन है। चौथा परिच्छेद- इसमें शिलान्यास विधि, शिलाभिषेक विधि, चतुःशिलाप्रतिष्ठा विधि, पंचशिला प्रतिष्ठा विधि, नवशिलाप्रतिष्ठा विधि आदि का निर्देश हुआ है। इसके साथ ही शिलान्यास का क्रम, शिलान्यास करने योग्य वास्तुस्थान, शिलान्यास कितना नीचे करना चाहिए, शिलाओं की ढ़ाल किस ओर होनी चाहिए, शिलान्यास और रत्नादिन्यास के मंत्र शिलान्यास करने के बाद शुभाशुभ निमित्त का भी निरूपण हुआ है। पांचवाँ परिच्छेदइसमें जिनमन्दिर के मुख्य द्वार की प्रतिष्ठा विधि का वर्णन है। छठा परिच्छेद- इस द्वार में हृदयप्रतिष्ठाविधि का उल्लेख है। जिन चैत्य के हृदय स्थान पर अर्थात् जिन शिखर के ऊपर आंबलसार में ताम्रमय कलश की स्थापना कर सुवर्णमय पुरुष की स्थापना करना, हृदय प्रतिष्ठा है। सातवाँ परिच्छेद- यह परिच्छेद पादलिप्तसूरिप्रणीत प्रतिष्ठाविधि से सम्बन्धित है। इसमें निर्वाणकलिका के आधार पर प्रतिष्ठाविधि के विधान कहे गये हैं जो क्रमशः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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