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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/257
(सप्त-खमासमण) विधि ७. नंदि प्रवेदन (पवेयणा) विधि ८. उपधानवाहियों के लिए प्राभातिक पौषध ग्रहण विधि, ६. उपधानवाही द्वारा वन्दनक षटक (पवेयणा) विधि १०. उपधानवाहियों के लिए दश खमासमण विधि ११. तृतीय प्रहर में करने योग्य उपधान एवं पौषध क्रिया विधि १२. उपधान की वाचना विधि १३. उपधान की वाचना के सूत्र-पाठों का सामान्य अर्थ १४. मालापरिधान विधि- समुद्देश विधि १५. अनुज्ञा विधि १६. उपधान निक्षेप विधि १७. प्रतिपूर्ण विगय पारणविधि। इसमें लघुनन्दी पाठ एवं उपधान-माला का माहात्म्य भी दिया गया है जो प्राकृत गद्य-पद्य में है।
इस कृति के अन्त्य में प्रस्तुत विधान से सम्बन्धित परिशिष्ट भाग भी संग्रहित किया गया है- उसमें कायोत्सर्ग विधि, नवकारवाली गुणन विधि, उपधानवाहियों की दैनिक क्रियाविधि, उपधान में आलोचना एवं दिन गिरने के कारण, उपधान के समय बोले जाने योग्य, चैत्यवंदन-स्तुति-स्तवनादि, पुरुष एवं स्त्रियों के रखने योग्य उपकरण, प्रत्याख्यान पारने की विधि, स्थंडिल गमन विधि, चौबीस स्थंडिल भूमि प्रतिलेखना का पाठ, उपधान सम्बन्धी विशेष बोल और आलोचना ग्रहण विधि आदि का उल्लेख हुआ हैं। इस कृति के अन्तर्गत दो उपधान यंत्र भी दिये गये हैं उनमें से एक यंत्र खरतरगच्छ परम्परानुसार है तथा दूसरा यंत्र तपागच्छीय विधि के अनुसार है। निःसन्देह यह कृति बहुत ही उपयोगी एवं उपधान अधिकारियों के लिए लाभदायी है। सम्मत्तुपायणविहि- (सम्यक्त्वोत्पादनविधि)
यह कृति मुनिचन्द्रसूरि ने लिखी है और वह जैन महाराष्ट्री के २६५ पद्यों में रची गई है। यह ग्रन्थ हमें उपलब्ध नहीं हुआ है तथापि इस कृति नाम से स्पष्ट होता है कि इसमें सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने की विधि या उपाय बताये गये हैं। सामाचारीसंग्रह
__ कुलप्रभसूरि के शिष्य नरेश्वरसूरि विरचित यह ग्रन्थ मुख्यतः संस्कृत भाषा में निबद्ध है, किन्तु कुछ द्वार प्राकृत भाषा में भी हैं। यह कृति 'वल्लभ नामक' स्वोपज्ञ टीका से युक्त है और नौ परिच्छेदों में विभक्त है। इस ग्रन्थ का श्लोक परिमाण ४००० है।
___ इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में ११ प्राकृत गाथाएँ हैं, जो मरुगुर्जर से प्रभावित हैं। प्रथम गाथा में शासनोपकारी महावीर प्रभु को वन्दन करके प्रस्तुत कृति की रचना करने का उद्देश्य बतलाया गया है। दूसरी गाथा में रचनाकार द्वारा स्वयं
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