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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/279
प्रतिपादन पाँच प्रकार के मरण - (१) पंडित-पंडित (२) पंडित (३) बाल पंडित (४) बालमरण और ५. बाल- बालमरण का कथन है। साथ ही इसमें बताया गया है कि किन जीवों का कौनसा मरण होता है? लिखा है कि क्षीणकषायकेवलि प्रथममरण, श्रेष्ठमुनि का द्वितीयमरण, देशविरत और अविरत का तृतीयमरण, मिथ्यादृष्टि का बालमरण और सबसे जघन्य कषाय-कलुषित चित्त वाली आत्मा का पाँचवा मरण होता है।
तत्पश्चात् श्रुतदेवता की वन्दना कर मुख्य विषय का आरम्भ किया गया है इसमें सविचारभक्तपरिज्ञामरण के चार द्वारों का सामान्य विवेचन इस प्रकार प्रतिपादित हैं - १. परिकर्मविधि द्वार- इस द्वार के अन्तर्गत प्रथम 'अर्ह' नामक प्रतिद्वार में भक्तपरिज्ञा अनशन ग्रहण करने वाले मुनि की योग्यता का कथन हैं। द्वितीय 'लिंग' प्रतिद्वार में मुखवस्त्रिका, रजोहरण, शरीर-अपरिकर्मत्व, अचेलत्व और केशलोच रूप मुनि के लिंगों का वर्णन हैं। तृतीय 'शिक्षा' प्रतिद्वार में सात शिक्षापदों का निरूपण हैं। चतुर्थ 'विनय' में ज्ञानादि पाँच प्रकार के विनय का स्वरूप वर्णित है। पंचम 'समाधि' प्रतिद्वार में मनोनिग्रह के विषय का प्ररूपण है। षष्ठम 'अनियतविहार' नामक प्रतिद्वार में दर्शन शुद्धि आदि की अपेक्षा पाँच 'अनियत वास के होने वाले गुणों का वर्णन हैं। सप्तम ‘परिणाम' नामक प्रतिद्वार में अनशनव्रत ग्रहण करते समय होने योग्य परिणामों की विवेचना है। अष्टम 'त्याग' प्रतिद्वार में संयम साधना में उपयोगी उपधि के अतिरिक्त शेष उपधि के त्याग का निरूपण है। नवम 'निःश्रेणि' प्रतिद्वार में भावश्रेणि आरोहण के विषय का वर्णन है। दशम 'भावना' प्रतिद्वार में क्रमशः पाँच संक्लिष्ट भावनाओं से हानि
और असंक्लिष्ट भावनाओं से लाभ का प्रतिपादन है। एकादश 'संलेखना' प्रतिद्वार में संलेखना के भेदों का विस्तार से विवेचन है। २. गणसंक्रमण द्वार- इस द्वार में उल्लिखित १० प्रतिद्वारों के नाम ये हैं- १. दिशा, २. क्षमणा, ३. अनुशिष्टि, ४. परगणा , ५. सुस्थित गवेषणा, ६. उपसम्पदा, ७. परिज्ञा, ८. प्रतिलेखा, ६. आपृच्छना और १०. प्रतिच्छा प्रथम 'दिशा' प्रतिद्वार में अनशनग्राही के द्वारा गण निष्क्रमण करने हेतु अर्थात् संलेखनाव्रत ग्रहण करने के लिए शुभतिथि, शुभनक्षत्र, शुभलग्न और शुभदिशा को देखने का निर्देश दिया गया है। द्वितीय ‘क्षामणा' प्रतिद्वार में आराधक द्वारा समस्त गण से क्षमापना करने का वर्णन है। तृतीय उपदेश प्रतिद्वार में गणाधिपति द्वारा क्षपक (आराधक मुनि) सहित अन्य शिष्यों को विस्तार पूर्वक विविध उपदेश देने का प्रतिपादन है। चतुर्थ 'परगणचर्या' प्रतिद्वार में यह बताया गया हैं कि
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