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280/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
स्वगण में अनशनव्रत ग्रहण करने से कुछ स्वाभाविक विघ्न उपस्थित होते हैं अतः अन्य गण में आराधना स्वीकारने का निवेदन है। पंचम 'सुस्थित गवेषणा' प्रतिद्वार में विभिन्न दोषों की सम्यक् आलोचना का निरूपण किया गया है। षष्टम 'उपसंपदा' प्रतिद्वार में वाचक आचार्य द्वारा मुनि की आराधना की पताका रूप व्रत प्रदान करने की स्वीकृति का वर्णन है, सप्तम ‘परिज्ञा' परिद्वार में एवं अष्टम 'प्रतिलेखा' परिद्वार में आहार आदि के सम्बन्ध में निर्यामक आचार्य द्वारा क्षपक की आराधना का निरीक्षण किये जाने का वर्णन है। नवम 'आपृच्छना' एवं दशम 'प्रतिच्छा' नामक प्रतिद्वार में प्रतिचारक की अनुमति हेतु निर्यामक आचार्य से कथन एवं प्रतिच्छक की नियुक्ति का निश्चय सम्बन्धी निरूपण है। ३. ममत्वव्युच्छेद द्वार- इस द्वार के अन्तर्गत १० प्रतिद्वारों के नाम इस प्रकार प्रस्तुत है :- १. आलोचना, २. गुण-दोष, ३. शय्या, ४. संस्तारक, ५. निर्यामक, ६. दर्शन, ७. हानि, ८. प्रत्याख्यान, ६. क्षमणा और, १०. क्षमण।
प्रस्तुत द्वार के प्रथम प्रतिद्वार में क्षपक (मुनि) कृत आलोचना का विस्तार से निरूपण है। द्वितीय 'गुण-दोष' प्रतिद्वार में सम्यक् आलोचना करने से होने वाले गुण और सम्यक् आलोचना न करने से होने वाले दोष का प्रतिपादन हैं। तृतीय ‘शय्या' प्रतिद्वार में क्षपक के लिए उपयुक्त वसति का वर्णन है। चतर्थ 'संस्तारक' प्रतिद्वार में क्षपक के लिए योग्य संस्तारक की चर्चा है। पंचम प्रतिद्वार में विविध प्रकार की वैयावृत्य करने में प्रवीण अड़तालीस प्रकार के निर्यामकों का स्वरूप प्रतिपादित है। षष्ठम 'दर्शन' प्रतिद्वार में आराधक द्वारा आहार का त्याग करने का निरूपण है। सप्तम 'हानि' प्रतिद्वार में उत्कृष्ट आहार का दर्शन कराने पर किसी क्षपक को रसासक्त जानकर उस-उस उत्कृष्ट आहार से हानि का निरूपण करते हुए क्षपक को आसक्ति से विरत करने का निर्देश है। अष्टम 'प्रत्याख्यान' प्रतिद्वार में क्षपक द्वारा सर्वाहार के त्याग का वर्णन है। नवम 'क्षमणा' प्रतिद्वार में गुरु की प्रेरणा से संलेखनाधारी द्वारा सर्वसंघ के प्रति क्षमायाचना करने का प्रतिपादन है। दशम 'क्षमण' प्रतिद्वार में क्षपक द्वारा सर्वसंघ को क्षमादान करने का प्ररूपण है। उसके पश्चात् ममत्व व्युच्छेद का फल बताया गया है। ४. समाधिलाभद्वार- इस द्वार में प्रतिपादित आठ प्रतिद्वार संक्षेप में इस प्रकार हैं - १. अनुशिष्टि, २. सारणा, ३. कवच, ४. समता, ५. ध्यान, ६. लेश्या, ७. आराधना- फल और ८. विजहना। प्रथम 'अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में संस्तारक आसीन क्षपक के लिए नव प्रकार की भाव संलेखना का उपदेश है। इसके साथ ही मिथ्यात्व-वमन, सम्यक्त्व भावना,
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