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________________ अर्हन्नमस्कार, पंचमहाव्रत रक्षा, कषायत्याग, इन्द्रियविजय और तप के उद्यम करने का उपदेश भी है। उपदेश के अन्त में क्षपक द्वारा उपदेश स्वीकार करने का उल्लेख है। द्वितीय 'सारणा' प्रतिद्वार में क्षपक के द्वारा ध्यान करते समय विधनकारी वेदनाओं का प्रसंग उपस्थित होने पर चिकित्सा आदि का निरूपण है। तृतीय 'कवच' प्रतिद्वार में विविध परिषहों को समतापूर्वक सहन करने का प्रतिपादन किया गया है। चतुर्थ 'समता' प्रतिद्वार में क्षपक द्वारा समभाव अंगीकार करने का प्रतिपादन है। पंचम ध्यान प्रतिद्वार में क्षपक द्वारा आर्त्तध्यान एवं रौद्रध्यान के परित्याग पूर्वक धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान को अंगीकर करने का वर्णन किया गया है। षष्टम 'लेश्या' प्रतिद्वार में प्रशस्त लेश्याओं की प्रतिपत्ति का सूचन किया गया है। सप्तम ' आराधनाफल' प्रतिद्वार में उत्कृष्ट मध्यम एवं जघन्य के प्रकार से आराधना फल का निरूपण किया गया है। साथ ही शिथिलाचारियों की अप्रशस्त गति का कथन किया गया है। अष्टम 'विजहना' प्रतिद्वार में समय आने पर क्षपक द्वारा शरीर के परित्याग का एवं उसके पश्चात् की क्रियाओं का विस्तार से निरूपण किया गया है। जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 281 यहाँ तक सविचार भक्तपरिज्ञामरण का वर्णन प्रतिपादित है इसके पश्चात् अविचार भक्तपरिज्ञामरण का निरूपण किया गया हैं। यह तीन प्रकार का कहा गया है १. निरुद्ध, २. निरुद्धतर, और ३. परम निरुद्ध । १. निरुद्ध- जंघाबल के क्षीण होने पर अथवा रोगादि के कारण कृश शरीर वाले साधु का गुफादि में होने वाला मरणविशेष निरुद्ध अविचारभक्तपरिज्ञामरण है। २. निरुद्धतर- व्याल, अग्नि, व्याघ्र, शूल आदि के कारण अपनी आयु को संकुचित जानकर मुनि का गुफादि में मरण होना निरुद्धतर है । ३. परम निरुद्ध - जब मुनि की वाणी वातादि के कारण अवरुद्ध हो जाये तब वह आयु को समाप्त जानकर जो शीघ्र मरण करता है वह परम निरुद्ध है। इस प्रकार समाधिमरण के दो प्रकारों का इसमें सम्यक् विवेचन हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्त में इंगिनीमरण स्वीकार करने की विधि भी बतायी गई हैं तथा यह भी कहा गया है कि इस मरण को स्वीकार कर कुछ सिद्ध होते हैं और कुछ देव गति को प्राप्त करते हैं । आराधनाकुलक - आराधनाकुलक' नामक यह रचना सभी प्रकीर्णकों में सबसे लघु है । इसमें कुल ८ गाथाएँ है। इसमें समाधिमरण को स्वीकार करने की संक्षिप्त विधि कही गई हैं। उसमें आराधक द्वारा समाधिमरण व्रत की प्रतिज्ञा का उच्चारण १ आराहणा कुलयं पइण्णयसुत्ताई, भा. २, पृ. २४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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