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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/589
सूर्यप्रज्ञप्ति आदि आगमग्रन्थ है। जैन दर्शन में देवों के चार प्रकार कहे हैं १. भवनपति, २. व्यंतर, ३. ज्योतिषी और ४. वैमानिक। उनमें ज्योतिषी देव पाँच प्रकार के माने गये हैं - सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा। पुनः ज्योतिष चक्र के दो प्रकार वर्णित हैं १. चर और २. स्थिर। अढ़ाई द्वीप में भ्रमण करने वाले ज्योतिषी देवचर कहलाते हैं और अढ़ाई द्वीप से बाहर भ्रमण करने वाले ज्योतिषी देव अचर कहलाते हैं। प्रस्तुत कृति में चर ज्योतिषी देवों की चर्चा है।
यहाँ उल्लेखनीय है कि चारगति के जीवों में मात्र मनुष्य के लिए ही मुहूर्त देखा जाता है। जहाँ मनुष्य के जन्म और मरण की क्रिया होती हो वहाँ काल की गणना का मुख्य आधार चर ज्योतिष चक्र है। इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि ज्योतिषविद्या जैन परम्परा की अपनी मूल और प्राचीनतम धरोहर है। जैन आचार्यों ने ज्योतिषकला सम्बन्धी कई ग्रन्थ लिखे हैं उनमें मुहूर्त्तमार्तण्ड, मुहर्त्तचिन्तामणी आदि प्रमुख हैं। उन्हीं कृतियों में आरंभसिद्धि ग्रन्थ एक विशिष्ट कोटि का है। इसमें मुहूर्त संबंधी सूक्ष्म एवं प्रामाणिक विचार किया गया है। इस ग्रन्थ में कुछ आवश्यक और उपयोगी ऐसे विषय भी चर्चित किये गये हैं जो अन्य ग्रन्थों में अनुपलब्ध हैं।
- इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हुए जो पूजने योग्य हैं उन सभी को नमस्कार किया गया है तथा सभी जीवों के कल्याण के लिए आरम्भसिद्धि नामक यह ग्रन्थ निर्विघ्न पूर्वक सम्पन्न हों, ऐसी प्रार्थना की गई है। तदनन्तर प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रतिपाद्य ग्यारह द्वारों का नामोल्लेख किया गया है - १. तिथि, २. वार, ३. नक्षत्र, ४. योग, ५. राशि, ६. ग्रहगमन (गोचर), ७. कार्य, ८. गमन, ६. वास्तु, १०. विशेष लग्न और ११. मिश्रा इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नोक्त हैं -
प्रथम द्वार में 'तिथि' से सम्बन्धित चर्चा की गई है। उसमें नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा इन तिथियों के नाम दिये गये हैं। हीन, मध्यमादि तिथियों का विचार किया गया है। क्षय एवं वृद्धि तिथि, दग्धा तिथि, क्रूरकान्त तिथि, भद्रास्वरूप इत्यादि पर भी विचार किया गया है। द्वितीय द्वार 'वार' से सम्बन्धित है। इसमें दिन की वृद्धि-हानि का मान, प्रतिवार में करने योग्य उचित कार्य, प्रतिवार के चौबीस होरा, कुलिश विचार, सिद्धछाया विचार आदि का निरूपण हुआ है।
तृतीय द्वार में 'नक्षत्र' विषयक प्रतिपादन है। इसमें मुख्य रूप से नक्षत्रपाद, नक्षत्रों की तारा, नक्षत्रों की संज्ञा, नक्षत्र स्वरूप, नक्षत्रस्थिति आदि का वर्णन किया गया है। चतुर्थ द्वार में 'योग' बतलाये गये हैं यहाँ योग से
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