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236/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
गुरुकुलवास, बाईस परीषह आदि का सम्यक् निरूपण किया है। यह प्रकरण पढ़ते-पढ़ते दीक्षा का साक्षात् स्वरूप अनुभव होने लगता है। सच्ची साधुता का जीवन जीने वाली आत्माओं के प्रति मस्तक स्वतः झुक जाता है। ग्रन्थकार ने इस द्वार में जो सामग्री प्रस्तुत की है वह जिन शासन के लिए अमर देन है। यहाँ आहार के सम्बन्ध में मंख, यतिभगिनी, वणिग, गोप, मित्रकथा, मधुबिन्दु के दृष्टान्त दिये है। तपविधान का उल्लेख करते समय वासुदेव, हरिकेशि, गजसुकुमाल के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। बाईस परीषह के विषय में क्रमशः हस्तिमित्र, धनशर्म, वणिक्चतुष्क, अर्हन्नक, श्रमणभद्र, सोमदेव, अर्हद्दत्त, स्थूलिभद्र, संगमस्थविर, कुरुदत्तपुत्र, भातृद्वय, स्कन्ध, बलदेव, ढंढणऋषि, हतशत्रु, भद्र, श्रावक, श्रेष्ठि, कालक, आभीर, स्थूलिभद्र,
आषाढ़ाचार्य के कथानक निर्दिष्ट है। पंचम द्वार का नाम 'प्रव्रज्यादुष्करत्त्व' है। इनमें प्रव्रज्या की दुष्करता को बताते हुए सुरेन्द्रदत्त की कथा कही है। षष्ठम द्वार का नाम 'धर्मफलदर्शन' है। इसमें भरतचक्रवर्ती की कथा दर्शित की है। सप्तम द्वार का नाम 'व्रतनिर्वाहन' है। इस विषय में वज्रस्वामी, प्रसन्नचन्द्रराजर्षि एवं सिद्धवति के कथानक कहे गये हैं। अष्टम द्वार का नाम 'व्रतनिर्वाह' है। इसमें व्रत का निर्वाह प्रशंसनीय रूप से हो, इसका उल्लेख है। नवम द्वार का नाम 'मोहतरुच्छेद' है। इसमें कहा है कि साधु (प्रव्रजित) को अप्रमत्त भाव से रहना चाहिये। इस पर अगड़दत्त ऋषि का कथानक है तथा प्रव्रजित को पुनः स्थिर करने के विषय में अभयकुमार की कथा दी है। दशम द्वार का नाम 'धर्मसर्वस्वदेशना' है। इसमें मुख्य रूप से निर्देश दिया है कि क्षणभंगुर संसार में धर्म ही साररूप तत्त्व है। वह धर्म भी संयम रूप ही उत्कृष्ट कहा गया है।
इस ग्रन्थ विवेचन से यह सस्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि प्रव्रज्या क्या है? प्रव्रजित साधु को कैसा होना चाहिये ? और प्रव्रजित होने वाले जीव को संयम का वास्तविक बोध कैसे कराया जाना चाहिए ? प्रव्रज्या देने वाले एवं प्रव्रज्या लेने वाले जीव को प्रव्रज्याविधानकुलकम् का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। इसमें कुल ६८ कथाएँ हैं। बृहद्योग विधि
आचार्य देवेन्द्रसागरसूरी द्वारा संपादित यह पुस्तक गुजराती लिपि में है।' यह एक संकलित की गई कृति है। इस कृति में उल्लिखित प्रायः विधि-विधान तपागच्छ परम्परा के अनुसार है।
' यह पुस्तक सुबोधसागरजी जैन ज्ञानमंदिर, वीसनगर (गुज.) से, वि.सं. २०२१ में प्रकाशित
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