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42/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
उपासकाध्ययन
यह अज्ञातकृत रचना है। इस पर अज्ञातकर्ता की टीका है। यह कृति श्रावक के आचार एवं तत्सम्बन्धी विधि-विधान विषयक है। उपासकाध्ययन
यह ग्रन्थ दिगम्बर आचार्य श्री ज्ञानभूषणजी द्वारा संस्कृत पद्य में रचित' हैं। इसमें कुल १३६१ श्लोक हैं। यह रचना चौदह अध्यायों में विभक्त २० वीं शती की है।
प्रस्तुत कृति का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि इसमें न केवल जैन उपासक की चर्याओं, आचारों एवं विधि-विधानों का ही उल्लेख हुआ है अपितु तत्त्वज्ञान सम्बन्धी वर्णन भी निरूपित है।
प्रथम अध्याय में नरक, तिर्यच, मनष्य एवं देव इन चारों गतियों में होने वाले दुख बताये गये हैं। दूसरे अध्याय में क्रोधादि चार कषाय, आठ मद, और छःलेश्या का स्वरूप वर्णित है। तीसरे अध्याय में एक से लेकर पाँच इन्द्रिय वाले जीवों का उल्लेख है। चौथे अध्याय में श्रावक के आठ मूलगुणों का विवेचन है। पाँचवा अध्याय जीव तत्त्व से सम्बन्धित है। छट्ठा अध्याय अजीव तत्त्व का विवेचन करता है। सातवें अध्याय में कुदेव-कुगुरु-कुधर्म का स्वरूप समझाया गया है। आठवें अध्याय में सम्यग्दर्शन की चर्चा करते हुए समकित के प्रकार भेद-प्रभेद आदि बताये गये हैं। नवमाँ अध्याय श्रावक के बारहव्रत एवं उनके अतिचारों से सम्बद्ध है। दसवें अध्याय में भक्ति भक्यों, जिनबिम्ब की अभिषेक विधि, सल्लेखना ग्रहण की विधि तथा द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप प्रतिपादित है। ग्यारहवाँ अध्याय जिनमन्दिर एवं जिनबिम्ब का वर्णन करता है। बारहवें अध्याय में अनित्यादि बारह भावनाएँ, श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाएँ और अहिंसा महाव्रत का उपदेश इत्यादि का विवेचन हुआ है। तेरहवाँ अध्याय श्रावक की दिनकृत्यविधि से सम्बन्धित है। इसमें श्रावक की प्रातःकालीन क्रियाएँ, श्रावक के षट् आवश्यक कर्म, स्वाध्याय का समय आदि का वर्णन हुआ है। चौदहवें अध्याय में सल्लेखना का विशेष स्वरूप उपदर्शित किया गया है।
इस कृति के उक्त वर्णन से प्रतीत होता है कि इसमें श्रावक को किन-किन विषयों, तत्त्वों एवं नियमों की सामान्य जानकारी होनी चाहिये उनका प्राथमिक वर्णन किया गया है उसके बाद ही श्रावक की आचार विधि दिखालायी
३ वही. पृ. ५६ ' यह ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद सहित, सन् १६८७, 'श्री दिगम्बर जैन समाज' द्वारा प्रकाशित हुआ
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