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410 / योग - मुद्रा - ध्यान सम्बन्धी साहित्य
क्रियाएँ शरीर और मन दोनों को स्वस्थ बनाती हैं। जो व्यक्ति शरीर की दृष्टि से रुग्ण, वृद्ध अथवा अशक्त हैं उनके लिए भी ये उपयोगी एवं शक्ति संवर्धक हैं। इन क्रियाओं की प्रविधि से सम्पूर्ण शरीर के सन्धिस्थलों में लचीलापन एवं कर्मजा शक्ति का विकास होता है। मांसपेशियों में स्फूर्ति तथा स्नायुसंस्थान में सक्रियता बढ़ती है। रक्त संचार सुव्यवस्थित होने लगता है । मन प्रसन्न और चित्त प्रशान्त होने लगता है जिससे प्रज्ञा प्रगट होती है । यौगिक शारीरिक क्रिया की प्रविधि को प्रयोग में लाने के लिए कोई विशेष स्थान एवं व्यवस्था की भी अपेक्षा नहीं रहती है, केवल स्वच्छ और हवादार स्थान पर्याप्त होता है । इस पूरे प्रयोग को एक साथ करने में लगभग १५ मिनट लगते हैं । समयाभाव में इस प्रयोग को खण्डों में विभाजित किया जा सकता है। यह अभ्यास मस्तक से लेकर पैर तक विभिन्न अवयवों पर क्रमशः तेरह क्रियाओं में पूर्ण होता है।
प्रस्तुत कृति में यौगिक शारीरिक क्रियाओं की जो प्रविधि बतायी गई है उन क्रियाओं का नामोल्लेख ही कर रहे हैं। इसमें रुचि रखने वाले साधक स्वयमेव इस कृति का अध्ययन करें।
(क) यौगिक शारीरिक क्रियाएँ ये हैं - 9. पहली क्रिया मस्तक के लिए, २ . दूसरी क्रिया - आँख के लिए, ३. तीसरी क्रिया कान के लिए, ४. चौथी क्रिया - मुख एंव स्वर यन्त्र के लिए, ५. पाँचवीं क्रिया - गर्दन के लिए, ६. छठी क्रिया स्कन्ध के लिए, ७. सातवीं क्रिया - हाथ के लिए, ८. आठवीं क्रिया- सीने और फेफड़े के लिए, ६. नवमीं क्रिया - पेट के लिए, १०. दसवीं क्रिया कमर के लिए, ११. ग्यारहवीं क्रिया - पैर के लिए, १२. बारहवीं क्रिया - घुटने एवं पंजे के लिए, १३. तेरहवीं क्रिया - कायोत्सर्ग
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(ख) स्वभाव परिष्कार के लिए मेरुदण्ड की तेरह क्रियाएँ एवं उसकी विधि (ग) कायोत्सर्ग की मुद्राएँ (घ) पेट एवं श्वॉस की दस क्रियाएँ एवं उसकी विधि (ड.) नमस्कार मुद्रा में पंच परमेष्ठी की मुद्रा विधि।
इस प्रकार यह कृति जैन और जैनेत्तर सभी साधकों के लिए उपयोगी है। इसमें यौगिक क्रियाओं का जैन दृष्टि से रूपान्तरण किया गया है। हस्तमुद्रा प्रयोग और परिणाम
यह कृति हिन्दी गद्य में है । इसका आलेखन गणाधिपति तुलसी के शिष्य किशनलालजी ने किया है। हस्त मुद्राओं के सम्बन्ध में यह कृति अपना विशिष्ट स्थान रखती है। यहाँ मुद्राविधि की चर्चा करने से पूर्व मुद्रा स्वरूप को समझ
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यह पुस्तक सन् २००१ 'जैन विश्वभारती लाडनूं' से प्रकाशित है।
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